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अभय और प्रेम जीवन के आधार ठों
रहे हैं कि जैसे अनंत काल तक उन्हें यहां रहना है। इंतजाम वे बड़ा लंबा कर रहे हैं और उन्हें पता नहीं कि घड़ी भर की बात है, रात भर का विश्राम है इस धर्मशाला में, और सुबह विदा हो जाना होगा। बड़ी व्यवस्था कर रहे हैं छोटे से समय के लिए। धर्मशाला में टिके हैं, आयोजन ऐसा कर रहे हैं जैसे कि किसी महल में सदा-सदा के लिए आवास करना हो। . जिनको मृत्यु का जरा सा भी स्मरण आ गया वे तो खुद ही सजग हो गए। उनसे बराई तो अपने आप गिर जाएगी, तुम्हें उसे गिराना न पड़ेगा।
तो लाओत्से कहता है, लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं, अन्यथा वे धार्मिक हो जाते।
बुद्ध को मृत्यु दिखाई पड़ गई, क्रांति घटित हो गई। एक आदमी को मरते देख लिया, पूछा सारथी को, क्या मुझे भी मरना पड़ेगा? सारथी डरा, कैसे कहे? पर उसने कहा कि झूठ भी तो मैं नहीं बोल सकता हूं। आप पूछते हैं तो मजबूरी में डालते हैं, मुझे कहना ही पड़ेगा। यद्यपि कहना नहीं चाहिए। यह भी कैसे अपशकुन भरे शब्द कि मैं आपसे कहूं कि आप भी मरेंगे। लेकिन झूठ नहीं बोला जा सकता। मरना तो सभी को पड़ेगा। रंक हो कि राजा, भिक्षु हो कि सम्राट, मरना तो पड़ेगा ही। आपको भी मरना पड़ेगा। बुद्ध ने कहा, रथ वापस लौटा लो, बात खत्म हो गई।
वे एक उत्सव में जा रहे थे। राज्य का सबसे बड़ा उत्सव था। उन्होंने कहा, अब कोई उत्सव न रहा। जब मौत होने ही वाली है, सब उत्सव व्यर्थ हो गए। अब तुम रथ वापस घर लौटा लो। अब मुझे कुछ और करना पड़ेगा। अब उत्सवों में समय खोने का समय न रहा। मौत किसी भी घड़ी हो सकती है, तो हो ही गई। अब मुझे मौत को ध्यान में रख कर कुछ करना पड़ेगा। अब तक मैं ऐसे जी रहा था कि मौत पर मैंने ध्यान ही न दिया था। तो अब तो जीवन की पूरी शैली बदलनी पड़ेगी। एक महान तथ्य जीवन में प्रविष्ट हो गया-मृत्यु। अब जीवन को मुझे ऐसे बनाना पड़ेगा जैसे उस आदमी को बनाना चाहिए जो अभी यहां है और कल विदा हो जाएगा। तो मुझे मृत्यु के पार की भी अब चिंता करनी होगी। अब तुम घर लौटा लो। अब यह सब राग-रंग व्यर्थ हो गया। मैं तो ऐसे ही जी रहा था जैसे सदा रहूंगा।
_मृत्यु का तथ्य जिसे दिखाई पड़ जाए वह तो खुद ही रथ वापस लौटा लेता है। तुम्हें उसे धमकाना नहीं पड़ता, डराना नहीं पड़ता। वह तो अपनी वासना को खुद ही वापस लौटा लेता है। जब जीवन ही खो जाएगा तो जीवन की तृष्णा का क्या मूल्य है?
इसलिए लाओत्से कहता है, 'लोग मृत्यु से भयभीत नहीं हैं।' काश भयभीत होते, तो तुम्हें उन्हें बदलनी पड़ता? वे खुद ही बदल जाते। 'और जो मृत्यु से भयभीत नहीं हैं, तब उन्हें मृत्यु की धमकी क्यों दी जाए?'
तब तुम उन्हें क्यों मृत्यु की धमकी दे रहे हो? क्यों डरा रहे हो? कोई अर्थ न होगा उस धमकी का। उस धमकी से वे ही डर जाएंगे जिनके अभी जीवन में पैर भी न पड़े थे, जिन्होंने अभी चलना भी न सीखा था वे घबड़ा कर बैठ जाएंगे। उस भय के कारण उनके जीवन में क्रांति तो न होगी, पक्षाघात हो जाएगा। उस भय के कारण वे पैरालाइज्ड हो जाएंगे।
निश्चित ही, अगर किसी आदमी को पक्षाघात हो जाए तो उसके जीवन में बुराई अपने आप कम हो जाती है। अब आप अस्पताल में पड़े हैं, उठ नहीं सकते। चोरी कैसे करेंगे? दूसरे की स्त्री को लेकर भागेंगे कहां? चल ही नहीं सकते, भागने का उपाय न रहा; दूसरी स्त्री का सवाल ही नहीं उठता। जेब कैसे काटेंगे? चुनाव कैसे लड़ेंगे? पक्षाघात में पड़े हैं तो बुराई अपने आप बंद हो गई। लेकिन क्या पक्षाघात से बुराई का बंद करना उचित है? तब तो इसका यह अर्थ हुआ कि अगर सभी लोगों को पक्षाघात हो जाए, पैरालाइज्ड हो जाएं, तो दुनिया से बुराई मिट जाएगी।
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