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ठला प्रश्न: आपने कहा कि विकास की तीन क्रमिक सीढ़ियां हैं-शरीर, मन, आत्मा। पश्चिमी सभ्यता ने शरीर और मन के तल पर काफी विकास किया है। लेकिन परिणाम में विषाद, अर्थहीनता और निराशा हाथ आई है। कृपया समझाएं कि सहज परिणाम की तरह पश्चिम की मनीषा ने तीसरे चरण की ओर विकास क्यों नहीं किया हैं?
पहली बात, प्रकृति का सारा विकास अचेतन है। प्रकृति अस्तित्व को मनुष्य तक ले आई है चुपचाप, बिना किसी साधना के। लेकिन मनुष्य का विकास अब अचेतन नहीं होगा। मनुष्य उस जगह खड़ा है जहां से चेतन विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। अब तो जो साधना करेगा, जो श्रम
करेगा, वही ऊपर उठेगा।। मनुष्य अचेतन विकास और चेतन विकास के बीच की कड़ी है। प्रकृति तो अचेतन है; वह तुम्हें मनुष्य होने तक ले आई। तुमने खुद क्या किया है मनुष्य होने तक? तुम्हारा अर्जन नहीं है मनुष्यता की उपलब्धि। करोड़ों-करोड़ों वर्षों में प्रकृति की बड़ी धीमी गति से, ट्रायल और इरर-करना, भूलना, सुधारना-ऐसे प्रकृति तुम्हें इस किनारे तक ले आई है जिसका नाम मनुष्यता है। लेकिन इससे आगे प्रकृति तुम्हें न ले जा सकेगी। उसने तुम्हें मनुष्यता के तट पर छोड़ दिया; अब आगे तो तुम्हें सचेतन रूप से विकास करना होगा। अन्यथा तुम मनुष्य होकर ही बार-बार मरते रहोगे। इसी को हिंदुओं ने आवागमन की पुनरुक्ति का सिद्धांत कहा है। तुम बुद्धत्व को उपलब्ध न हो जाओगे जैसे तुम मनुष्यत्व को उपलब्ध हुए हो। बुद्धत्व के लिए तो तुम्हें सचेत रूप से चेष्टा करनी होगी।
तो मनुष्य के बाद की जो सीढ़ियां हैं वे यै तीन सीढ़ियां हैं।
पहली बात है, शरीर के तल पर तुम्हें स्वस्थ होना पड़ेगा; शरीर के तल पर तुम्हें आजीविका अर्जित करनी होगी। प्रकृति पशु-पक्षियों को आजीविका के लिए मजबूर नहीं करती; आजीविका उपलब्ध है। पौधों को पानी चाहिए, पानी उपलब्ध है; भोजन चाहिए, भोजन उपलब्ध है। लेकिन मनुष्य को तो शरीर के तल पर भी श्रम करना होगा तो ही शरीर बचेगा; अन्यथा शरीर भी खो जाएगा। और यह सौभाग्य है; यह दुर्भाग्य नहीं है। क्योंकि जो मुफ्त मिलता है वह मिलता ही कहां? जो चेष्टा से मिलता है वही तुम्हारी संपदा है। जिसे तुम श्रम से अर्जित करते हो केवल वही तुम्हारा है। शेष सब मिला था मुफ्त; मुफ्त ही छीन लिया जाएगा। जिसे तुमने मेहनत से पाया है, जिसके लिए तुम्हारे प्राणों को कष्ट झेलना पड़ा है, जिसके लिए तुमने कुछ ऊर्जा व्यय की है, वह तुमसे न छीना जा सकेगा।
शरीर के तल से ही यात्रा शुरू हो जाती है सचेतन। तुम्हें शरीर को सम्हालने के लिए व्यवस्था करनी पड़ेगी, अन्यथा तुम जी भी न सकोगे। जब शरीर परिपूर्ण स्वस्थ होगा, भरा-पूरा होगा, तब जरूरी नहीं है कि मन की आवश्यकताएं पैदा हो जाएं। यह भी हो सकता है कि तुम शरीर के ही जीवन में परिभ्रमण करने लगो। तब बड़ी
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