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राजनीति को उतारो सिंहासन से
उपद्रव में उतरने का अर्थ होता है, अपने को भी उपद्रव में डालना। लोग चाहते नहीं कि उपद्रव हो। लेकिन एक ऐसी घड़ी आ जाती है संकट की जब कि जीवन में कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, जीना ही मुश्किल हो जाता है। उस अंतिम घड़ी में, मरता क्या न करता; उस घड़ी में ही लोग उपद्रव के लिए राजी होते हैं। और तब भी लोग राजी होते हैं, ऐसा कहना कठिन है; तब जो लोग शासन में हैं, उनके विरोधी लोग जो शासन में नहीं हैं, वे लोगों को राजी करते हैं।
. लोगों ने अब तक कोई क्रांति नहीं की। लोगों का संतोष अपार है। लोग सब तरह की कठिनाइयां बरदाश्त करके चुपचाप जी लेना चाहते हैं। क्योंकि जीने में इतना रस है कि कौन उसे उपद्रव में डाले। लेकिन जब जीना मुश्किल ही हो जाए, रोटी भी उपलब्ध न हो, पानी भी उपलब्ध न हो; तब समझो कि लोग भूख, पीड़ा में सूख गए होते हैं, सूखा ईंधन हो गए होते हैं, तब कोई भी उपद्रवी, जो शासन-सत्ता में होना चाहता है और नहीं हो पाया, वह जरा सी चिनगारी लगा दे, जरा सी चकमक चला दे बगावत की, कि फिर दावानल उठ जाता है। भूख आग बन जाती है। सभी क्रांतियां भूख से पैदा होती हैं। लोग जब मरने की हालत में हो जाते हैं, तभी लड़ने को तैयार होते हैं। अन्यथा लोग तो धरती जैसे हैं-सब संहते हैं।
__ लाओत्से कह रहा है कि जब लोग उपद्रवी हों तब तुम उन्हें दंड देने की बजाय इस बात का विचार करना कि शासन अत्यधिक शोषण कर रहा है। अन्यथा लोग कभी उपद्रवी न होते। लोगों का उपद्रव केवल लक्षण है कि शासन ने ज्यादा चूस लिया है लोगों को। इतना चूस लिया है कि अब वे मरने को भी तैयार हैं, मारने को भी तैयार हैं। उनकी भूख ने उनके जीवन का बोध, जीवन का रस, संतोष की क्षमता, सब छीन लिया है। अब भूख इतनी विकराल है कि अब उन्हें यह भी नहीं लगता कि बचने में कोई सार है। मिटाने का एक रस पैदा हो जाता है भूख के कारण। - ऐसा ही समझो कि जैसे किसी आदमी को बुखार आ गया हो, शरीर ज्वर से भरा है, तापमान बढ़ता जाता है। ज्वर लक्षण है, बीमारी नहीं; सिम्पटम है। बीमारी तो भीतर है कहीं। ज्वर तो मित्र है; वह तो खबर दे रहा है कि अब सब तरफ से ध्यान हटा लो; भीतर कुछ रोग खड़ा हुआ है, उसे ठीक करो; उस रोग को प्रियारिटी देनी जरूरी है, प्राथमिकता देनी जरूरी है। अब तुम हजार काम कर रहे हो, ज्वर कहता है कि उसने लाल झंडी बता दी, अब तुम रुक जाओ! अब कुछ भी करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना भीतर की बीमारी से जूझना जरूरी है। पहले चिकित्सा करवा लो, विश्राम कर लो। ज्वर का अर्थ यह नहीं है कि शरीर गरम हो गया है तो उसको ठंडा करने से कुछ हल हो जाएगा। ज्वर का इतना ही अर्थ है कि भीतर कोई रोग है। उस रोग के कारण सारा शरीर उत्तप्त है, और जल रहा है और आग में पड़ा है। उस रोग को ठीक कर लो, ज्वर अपने से शमित हो जाएगा। - लाओत्से कहता है कि जब लोग उपद्रव से भरे हैं तो यह लक्षण है ज्वरग्रस्त दशा का, समाज बीमार है। तुम इन बीमारों को दंड देते हो? तुम उपद्रवियों को जेलों में डालते हो?
तो तुम ज्वर का इलाज कर रहे हो, बीमारी का नहीं। इससे तो दावानल और बढ़ेगा। इससे तो आग और फैलेगी। इससे तो जो भूखे अभी उपद्रव में सम्मिलित नहीं थे, वे भी सम्मिलित हो जाएंगे। जब लोग उपद्रव करें तो शासन को समझना चाहिए कि शासन ने सीमा से बाहर शोषण कर लिया और शासन लोगों के ऊपर छाती पर पत्थर की तरह बैठ गया है। अब वह गर्दन में बंधा हुआ पत्थर है, जिससे लोग घबड़ा रहे हैं, डूब रहे हैं। अब शासन बचाता नहीं है, डुबा रहा है। इसलिए अगर चिकित्सा करनी हो तो शासन को अपने ढंग और व्यवस्था की करनी चाहिए। उपद्रवियों को दंड देना व्यर्थ है।
चोर वहीं पैदा होते हैं जहां कुछ लोग बहुत संपत्ति इकट्ठी कर लेते हैं, अन्यथा चोर पैदा नहीं होते। चोर का केवल इतना ही अर्थ है कि कुछ लोगों के पास जरूरत से ज्यादा हो गया है और कुछ लोगों के पास जरूरतें भी पूरी करने योग्य नहीं बचा है। तब कलह खड़ी हो जाती है।
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