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राजनीति को उतारो सिंहासन से
बहुत मजे की घटना घटती रहती है। राज्य कहता रहता है, गरीबी मिटानी है। और राज्य की वजह से गरीबी पैदा होती जाती है। जो गरीबी पैदा कर रहे हैं वे उसको मिटाने का नारा देकर लोगों को धोखा देते रहते हैं।
राज्य जितना कम होगा उतने ही लोग संपन्न होंगे। क्योंकि लोग अपने पेट भरने लायक काफी पैदा कर लेते हैं; उसके लिए कोई कमी नहीं है। और लोगों की कोई बहुत महत्वाकांक्षाएं नहीं हैं। भरपेट रोटी मिल जाए, तन भर कपड़ा मिल जाए, विश्राम के लिए छप्पर मिल जाए-इतनी लोगों की आकांक्षा है। लोगों की आकांक्षाएं बहुत नहीं हैं। उपद्रव तो उन लोगों के साथ है जिनकी बहुत आकांक्षाएं हैं। वे बहुत थोड़े लोग हैं। और उन्होंने सारे समाज को उपद्रव में डाल दिया है। उनकी थोड़ी सी वासनाओं की पूर्ति के लिए सारा समाज भूखा मरता है, सड़ता है, बीमार रहता है, दीन-दरिद्र रहता है। समय के पहले मर जाते हैं लोग–हस्तक्षेप राज्य में!
गरीब भी प्रसन्न था; अब अमीर भी प्रसन्न नहीं है। गरीब भी कमा लेता था रोटी अपने लायक; सांझ को बैठ कर ढपली बजाता था, गीत गाता था; वर्षा आती थी तो आल्हा-ऊदल पढ़ता था। रात देर तक अलाव जला कर गपशप करता था; गहरी नींद सोता था। गरीब की कोई बहुत आकांक्षा नहीं है। लोगों की कोई बहुत आकांक्षा नहीं है। थोड़े से विक्षिप्त लोग हैं, उनकी बड़ी भयंकर आकांक्षाएं हैं जो कभी पूरी नहीं हो सकतीं। उनकी न पूरी होने वाली आकांक्षाओं के लिए लोगों की सहज आकांक्षाएं, जो सदा पूरी हो सकती हैं और पूरी होनी चाहिए, वे पूरी नहीं हो पातीं। समाज थोड़े से पागलों के कारण परेशान है।
जरूरत की चीजें पर्याप्त हैं प्रकृति में। भोजन जमीन बहुत दे सकती है—पेट भरने लायक। लेकिन अगर पेट की जगह पागलपन हो तो पागलपन को भरने लायक जमीन अन्न नहीं दे सकती। पानी बहुत है। आकाश बड़ा है; सबके लिए छाया हो सकती है। लेकिन जैसे ही कुछ पागल लोग, एंबीशस जिनको हम कहते हैं, महत्वाकांक्षी, और महत्वाकांक्षा पागलपन का गहरे से गहरा रूप है, जैसे ही महत्वाकांक्षियों के जाल में समाज पड़ जाता है वैसे ही अड़चन खड़ी हो जाती है। उन पागलों की पूर्ति के लिए सब मिट जाते हैं; और फिर भी पागलों की तो कोई पूर्ति होती नहीं; वह भी हो जाती तो भी कोई बात थी।
___ लाओत्से कहता है, लोगों का उपद्रव पैदा होता है शासन के अति भार से। शासन लोगों की रोटी छीन लेता है; और प्रतिपल हस्तक्षेप करता है। हस्तक्षेप ऐसा है कि आदमी को लगता है कि वह बिलकुल स्वतंत्र ही नहीं है, कुछ भी करने को स्वतंत्र नहीं है। सब तरफ परतंत्रता खड़ी है। और परतंत्रता के नियम इतने ज्यादा हैं कि अब ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो अपने को अपराधी अनुभव न करे। क्योंकि अगर जीना है तो कोई न कोई नियम तोड़ना पड़े, नहीं तो जी नहीं सकते। या तो मर जाओ, आत्मघात कर लो; और या फिर अपराधी हो जाओ। राज्य ने दो ही विकल्प छोड़े हैं। हर आदमी अपराधी अनुभव करता है, क्योंकि उसे लगता है, कहीं थोड़ा सा टैक्स बचा लिया, कहीं कुछ और नियम तोड़ दिया, जो चीज नहीं ले आनी थी वह ले आए, जो नहीं खरीदना था वह खरीद लिया, जो नहीं बेचना था वह बेच दिया। हर पल ऐसा लगता है कि आदमी कहीं न कहीं जुर्म कर रहा है, अपराध कर रहा है। और वह स्थिति बहुत अच्छी नहीं है जहां पूरे समाज के सभी लोग आत्म-अपराध से भर जाएं और जहां उनको प्रतिपल डर लगता हो कि आज पकड़े कि कल पकड़े, कि कब खुल जाएगा यह भंडा, पता नहीं।
और कोई अपराधी नहीं है। नियम अपराधी हैं, अति नियम अपराधी हैं। अब जैसे कि कोई यही नियम बना दे कि तुम बाहर खड़े होकर खुले आकाश में सांस नहीं ले सकते हो। तो फिर तुम लोगे सांस तो अपराधी अनुभव करोगे। और यह घड़ी कभी न कभी आ जाएगी, क्योंकि हवा विषाक्त होती जा रही है। पश्चिम में तो हो ही गई है। पश्चिम में छोटे-छोटे बच्चे स्कूल नकाब पहन कर जा रहे हैं जिसके साथ एक आक्सीजन की थैली जुड़ी होती है। क्योंकि सड़कों पर जो हवा है, कारों के अत्यधिक चलने से वह विषाक्त हो गई है; उसको पीना खतरनाक है।
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