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अभय और प्रेम जीवन के आधार छों
हमने तो बड़े अच्छे लोग भेजे थे सत्ता में, अच्छे से अच्छे लोग, जिनको हम समझते थे अच्छे लोग। क्योंकि गांधी ने बड़े सेवक तैयार किए थे, बड़े त्यागी तैयार किए थे। वे सब भोगी सिद्ध हुए। वह सब त्याग दो कौड़ी में मिल गया। जैसे ही सत्ता आई वैसे ही सब रूप बदल गया। क्यों? क्योंकि उनको लड़ना पड़ा, चारों तरफ की बुराई है उससे लड़ना पड़ा। वह बुराई उन्हें बुरा कर गई।
जिससे तुम दुश्मनी लोगे, तुम कभी न कभी उसी जैसे हो जाओगे। इसलिए मैं कहता हूं, शैतान से मत लड़ना। परमात्मा से प्रेम करना; शैतान से मत लड़ना। शैतान से लड़ने की तरफ ध्यान ही मत देना। क्रोध से मत लड़ना, करुणा को जगाना; क्रोध पर ध्यान ही मत देना। कामवासना से मत लड़ना, अन्यथा तुम और कामी हो जाओगे। और अगर कामवासना से लड़-लड़ कर तुम्हारा ब्रह्मचर्य भी पैदा हो गया तो वह ब्रह्मचर्य का गुणधर्म भी कामवासना का होगा, वह भिन्न नहीं हो सकता। इसलिए ठीक दिशा में ध्यान देना जरूरी है।
__ लाओत्से कहता है, 'मान लो लोग मृत्यु से भयभीत हैं, और हम उपद्रवियों को पकड़ कर मार भी सकते हैं, तो भी ऐसा करने की हिम्मत कौन करेगा?'
क्योंकि जो मारेगा वह उपद्रवियों जैसा ही हो जाएगा। जो उनकी हत्या करेगा, जो बुराई को तोड़ेगा, वह तोड़ने में ही बुरा हो जाएगा।
'अक्सर ऐसा होता है कि बधिक मारा जाता है।'
मारने वाला मारने की प्रक्रिया में ही मारा जाता है। भला वस्तुतः न मारा जाए, लेकिन मारा जाता है, खो देता है अपने को।
'और बधिक की जगह लेना ऐसा है जैसे कोई महा काष्ठकार की कुल्हाड़ी लेकर चलाए।'
जब भी तुम बधिक की जगह लेते हो, जैसे ही तुम तय करते हो कि किसी को डराना है, धमकाना है, मिटाना है, क्योंकि भलाई को जन्म इसी तरह मिलेगा, तभी तुम गलती कर रहे हो। क्योंकि बुराई से भलाई को जन्म नहीं मिल सकता। मिटाना, डराना, धमकाना बुराई है। बुराई से कभी भलाई का जन्म नहीं होता।
अभी मैंने, जब हिंदुस्तान और चीन पर युद्ध के बादल छा गए और दोनों मुल्क संघर्ष के लिए करीब आए तो एक जैन मुनि से मेरी बात हो रही थी। मैंने उनसे कहा कि आपने भी आशीर्वाद दिया सेनाओं को, यह कुछ समझ में नहीं आता, क्योंकि अहिंसा परमो धर्मः। उन्होंने कहा, निश्चित दिया, क्योंकि अहिंसा की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी है।
अहिंसा की रक्षा के लिए युद्ध जरूरी है! यह वचन तो बिलकुल ठीक लगता है, लेकिन तुम इसमें थोड़ा सोचो इसका क्या अर्थ हुआ? अहिंसा की रक्षा भी हिंसा से होगी? तो तुम हिंसा अहिंसा के नाम पर करोगे; बस इतनी ही बात हुई, और तो कोई फर्क न हुआ। और अगर अहिंसा की रक्षा भी हिंसा से होती है तो अहिंसा नपुंसक है। तो फिर अहिंसा की बकवास ही छोड़ो। कम से कम ईमानदारी ग्रहण करो, प्रामाणिक रूप से यह कहो कि हिंसा के बिना कोई उपाय नहीं है, इसलिए हिंसा करेंगे। बात तो अहिंसा की करोगे, और फिर जब रक्षा करनी पड़ेगी तो हिंसा का ही सहारा लेना पड़ेगा। अहिंसा इतनी कमजोर है? और जब तुम हिंसा करोगे अहिंसा के नाम से तो तुम में और हिंसक में फर्क क्या रह जाएगा? हां, तुम जरा ज्यादा चालाक हो, तुम ज्यादा बेईमान हो। इतना ही फर्क। हिंसक कम से कम साफ-सुथरा है। अहिंसा की रक्षा हिंसा से कैसे हो सकती है?
लोग कहते हैं, धर्म खतरे में है। फिर धर्म की रक्षा हिंसा से करते हैं। धर्म अहिंसा है, प्रेम है। और तुम हिंसा करोगे तो धीरे-धीरे तुम अधार्मिक हो जाओगे। और जब तक तुम रक्षा करके निबटोगे, तुम पाओगे तुम्हारी जीवन-चेतना हिंसात्मक हो गई। क्योंकि तुम जो करते हो उसका अभ्यास तुम्हारे जीवन को बदल जाता है। तुम वही हो जाते हो जो तुम करते हो। तुम उसके साथ तादात्म्य बना लेते हो।
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