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अभय और प्रेम जीवन के आधार ठों
जो उसने किया था। हम उसकी हत्या कर देते हैं। हमारी हत्या न्याय, और उसकी हत्या अन्याय! और उसने हत्या की तो वह हत्यारा, और हमारा न्यायाधीश हत्या करता है तो वह हाथ भी नहीं धोता; उसकी चेतना पर कोई चोट भी नहीं पड़ती।
मनसविद कहते हैं कि हत्यारे और न्यायाधीश एक ही तरह के वर्ग से आते हैं, उनकी चेतना का गुणधर्म एक जैसा है। पुलिसवाले और गंडे एक ही वर्ग से आते हैं; उनकी चेतना का गुणधर्म एक जैसा है। पुलिसवाले को गुंडा होना ही चाहिए, नहीं तो वह गुंडों से व्यवहार न कर सकेगा। अगर तुम जाकर पुलिसवालों की भाषा सुनो, तो वे जैसी गालियां देंगे वैसी गाली बुरे से बुरा आदमी नहीं देता। और वे जैसा व्यवहार करेंगे, वह तुम्हें पता नहीं चलता, क्योंकि तुम्हें कभी उनके व्यवहार का मौका नहीं आता, लेकिन जिन लोगों को उनके साथ व्यवहार करना पड़ता है वे जानते हैं कि इससे ज्यादा बुरे आदमी खोजने मुश्किल हैं। असल में, फर्क इतना ही है कि वे राज्य के द्वारा नियुक्त गुंडे हैं, दूसरे गुंडे अपनी मर्जी से गुंडे हैं। बस इतना ही फर्क है।
न्यायाधीश हत्यारे हैं, लेकिन बड़ी व्यवस्था से। उनका चोगा, उनके सिर पर लगाए गए विग, व्यवस्था, चारों तरफ गंभीर, काले कोटों से घिरे हुए वकील-ऐसा लगता है कि कुछ हो रहा है, कोई न्यायपूर्ण बात हो रही है। लेकिन हो क्या रहा है? इस सारे जाल के भीतर हो इतना ही रहा है कि जो बुरे आदमियों ने किया है, समाज उनके साथ वही बुराई करना चाहता है। समाज प्रतिशोध लेना चाहता है। तुम हत्या को कानून के शब्दों में रख कर बदल नहीं सकते। हत्या तो हत्या है। राज्य ने की या व्यक्ति ने की, कोई फर्क नहीं पड़ता। हत्या तो हत्या ही रहती है।
और एक बड़ी समझ लेने जैसी बात है कि जो लोग हत्या करते हैं वे उस करने के कारण हत्या के जो परिणाम हैं उनकी चेतना पर, उससे बच नहीं सकते। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर तुमने बुरे आदमी को दंड देकर ठीक करने की कोशिश की तो इस कोशिश में धीरे-धीरे तुम भी बुरे हो जाओगे। क्योंकि तुम दंड दोगे। दंड देना कोई बड़ा शुभ कृत्य नहीं है। तुम मारोगे। मारना कोई शुभ कृत्य नहीं है। तुम कोड़े चलाओगे; तुम सजाएं दोगे। तुम्हारी आत्मा यह सब करने के कारण धीरे-धीरे सख्त, कठोर, पथरीली होती जा रही है।
और न्यायाधीशों से ज्यादा पथरीली आत्मा तुम कहीं भी न पाओगे। क्योंकि हत्यारा तो शायद भावावेश में हत्या करता है, न्यायाधीश बड़ी शीतलता से हत्या करते हैं, कोल्ड मर्डर।
एक आदमी से तुम्हारा झगड़ा हो गया, तुम क्रोध में आ गए, भावाविष्ट हो गए, उत्तप्त हो गए; उस उत्तप्त बेहोशी में तुमने हत्या कर दी। यह हत्या क्षम्य भी हो सकती है, क्योंकि तुम अपने होश में न थे, तुम बेहोश थे। शायद भविष्य में अदालतें इसे क्षमा करेंगी। जैसे अभी अगर सिद्ध हो जाए कि आदमी पागल था तो फिर पागल को सजा नहीं दी जा सकती। लेकिन क्रोध में भी तो आदमी पागल हो जाता है, क्षण भर को सही। स्थायी पागल न हो; पहले पागल न था, बाद में पागल न रहा; लेकिन उस क्षण में तो पागल हो ही जाता है। उस पागलपन में हत्या करता है। यह क्षमा-योग्य हो सकती है। लेकिन न्यायाधीश सोच-विचार कर, गणित से, कैलकुलेशन से हत्या करता है। उसकी हत्या अक्षम्य है। व्यक्ति हत्या करते हैं भावाविष्ट होकर; समाज हत्या करता है गणित के हिसाब से। समाज की हत्या बिलकुल अक्षम्य है।
लेकिन लाओत्से जैसे व्यक्तियों की बात कोई सुनता नहीं। इसलिए धीरे-धीरे समाज के पास आत्मा तो पत्थर हो जाती है। जो समाज लोगों को आत्मा देना चाहता है उसके पास खुद ही कोई आत्मा नहीं होती। जो न्यायाधीश लोगों को बदलना चाहता है, उसके पास ही बदलने वाली कोई अंतस-चेतना नहीं होती। जो राजनीतिज्ञ समाज के भ्रष्टाचार को दूर करना चाहते हैं, उनका सारा जीवन भ्रष्टाचार से लिप्त होता है। वे वहां तक पहुंच ही नहीं सकते जहां तक पहुंच गए हैं बिना भ्रष्टाचार के।
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