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मुक्त व्यवस्था-संत और स्वर्ग की
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न हो जाएं। इसलिए समाज हजार तरह के भय खड़े करता है। समाज एक ही तरकीब जानता है मनुष्य को नियंत्रण में रखने की, वह भय है। साधु निन्यानबे प्रतिशत भय के कारण होता है। यह भी कोई साधुता हुई ?
असाधु निन्यानबे प्रतिशत निर्भय के कारण होता है। अगर निर्भय पर ध्यान रखो तो असाधु में भी गुण दिखाई पड़ेगा। अगर भय पर ध्यान रखो तो साधु में भी दुर्गुण दिखाई पड़ेगा। अगर कृत्य पर ध्यान रखो तो साधु में गुण दिखाई पड़ेगा, असाधु में दुर्गुण दिखाई पड़ेगा।
समाज कृत्य की फिक्र करता है, तुम्हारी अंतरात्मा की नहीं। इसलिए साधु का सम्मान करता है, असाधु का अपमान करता है। क्योंकि समाज का संबंध उससे है जो तुम करते हो । जब तुम कुछ करते हो तभी समाज के जीवन में कोई चीज प्रवेश पाती है। अगर तुम सोचते रहते हो, कोई हर्जा नहीं है। अगर एक आदमी बैठ कर दिन-रात चोरी का चिंतन करता है तो भी अदालतें उस पर मुकदमा नहीं चला सकतीं। क्योंकि चिंतन निजी है, विचार वैयक्तिक हैं। तुम सारी दुनिया की हत्या रोज करो मन में तो भी तुम पर किसी को मारने का मुकदमा नहीं चल सकता। क्योंकि जब तक तुम विचार करते हो तब तक समाज में तुम उतरते ही नहीं। जैसे ही तुम कृत्य करते हो, तुम समाज में आते हो । विचार जब कृत्य बनता है तभी सामाजिक बनता है; जब तक विचार रहता है तब तक निजी है।
इसलिए समाज कहता है, तुम्हें सोचना हो तो मजे से सोचो। समाज मौके भी देता है सोचने के कि तुम सोचने में ही चुक जाओ, ताकि करो न । फिल्में हैं हत्याओं से भरी हुई, डकैतियों से भरी हुई, व्यभिचार से भरी हुई । समाज उन्हें प्रकट रूप से दिखाता है। किताबें हैं अश्लील, गंदी से गंदी, हत्याओं से भरी, सब तरह के व्यभिचारों में लिप्त; वे उपलब्ध हैं। समाज को इसमें कोई ज्यादा चिंता नहीं पैदा होती ।
मनसविद तो कहते हैं कि हत्या की फिल्म को देख कर हत्या के भाव का रेचन होता है । जब तुम हत्या की फिल्म देख लेते हो तो तुम्हारे हत्या करने का जो भीतर छिपा हुआ भाव है उसका निष्कासन हो जाता है, तुम थोड़े हलके हो जाते हो। तुम दूसरों को व्यभिचार करते देख लेते हो फिल्म में या उपन्यास में, तुम्हारी व्यभिचार करने की वृत्ति को थोड़ी सी राहत मिल जाती है।
समाज पूरा मौका देता है; सोचो मजे से, भाव करो मजे से । पूरी स्वतंत्रता है । कृत्य में भर मत लाना। क्योंकि जैसे ही कृत्य में आया वैसे ही समाज की नींव डगमगाती है।
धर्म के संबंध बात बिलकुल भिन्न है। धर्म को इसकी चिंता नहीं कि तुमने किया या नहीं; धर्म को चिंता है कि तुमने सोचा या नहीं। क्योंकि धर्म निजी है, वैयक्तिक है । तुमने कितने ही साधुता के कृत्य किए हों, और अगर विचार असाधुता के हैं, तो धर्म की नजर में तुम साधु नहीं हो, समाज की नजर में साधु हो । अगर तुम्हारे भीतर भावनाएं पाप की हैं और तुम कृत्य पुण्य के करते हो। और अक्सर ऐसा होता है कि भावनाओं को छिपाने के लिए आदमी विपरीत कृत्य करता है। जिनके मन में पाप की बड़ी भावना है वे अपनी दीवाल पर लिख लेते हैं: ब्रह्मचर्य ही जीवन है। वह दीवाल पर जो उन्होंने लिख रखा है, टेबल पर जो मोटो रख कर बैठे हैं, ठीक उससे उलटी उनकी दशा होगी। सोचो, जिस आदमी को कामवासना की तीव्र विक्षिप्तता न उठती हो वह क्यों दीवाल पर लिख कर बैठेगा कि ब्रह्मचर्य ही जीवन है ? बीमार आदमी औषधि साथ रखता है; स्वस्थ आदमी तो नहीं।
जिसने अपने दरवाजे पर लिख रखा है : आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पालिसी । यह आदमी बेईमान है। इससे तुम जरा सावधान रहना, अपनी जेब बचाना। क्योंकि जो आदमी लिख कर बैठा है कि ईमानदारी ही श्रेष्ठतम नीति है, यह आदमी बेईमान होना ही चाहिए। अन्यथा इसे लिखने का सवाल ही न था । तुम्हें पक्का पता है, जहां-जहां तुम लिखा देखो कि यहां शुद्ध घी बिकता है, वहां तुम थोड़े संदिग्ध हो जाना। क्योंकि घी लिखना काफी है, शुद्ध ! घी में शुद्ध ही जाता है। घी में अशुद्ध का क्या सवाल है ?