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मुक्त व्यवस्था-संत और स्वर्ग की
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समाज का। संत का न तो विरोध किया जा सकता है पूरे मन से, क्योंकि समाज को भी प्रतीत होता है कि आदमी गलत तो नहीं है। जीसस को पूरे मन से विरोध भी तो नहीं किया जा सकता; फांसी लगाते वक्त भी तो मन को चोट लगती है, कचोट होती है। लेकिन फांसी लगानी होगी। क्योंकि यह आदमी समाज के नियम तुड़वाए दे रहा है; प्रकट व्यवहार इसका असाधु का है। यह होगा भीतर साधु, लेकिन बाहर तो यह जो भी कर रहा है उससे समाज की नींव को डगमगा दिया है। समाज का भवन गिराए दे रहा है। जो-जो नियम थे, सब तोड़ दिए हैं। यह आदमी खतरनाक है । यद्यपि इस खतरनाक आदमी के भीतर भी गंध तो मिलती है किसी अपूर्व घटना की । लेकिन उस घटना के लिए इस आदमी की खतरनाक जीवन व्यवस्था को भी तो बरदाश्त नहीं किया जा सकता। तो जीसस को सूली लगा दी। जिन्होंने सूली लगाई, वही ईसाई हो गए। जिन्होंने सूली लगाई, वे ही जीसस के भक्त हो गए। और ऐसी घटना बनी कि यहूदी धर्म सिकुड़ कर छोटा हो गया और ईसाइयत फैल कर विराट सागर बन गई।
हां, सूली लगा देने के बाद इस आदमी का कृत्य का जीवन तो समाप्त हो गया, आचरण तो समाप्त हो गया। अब बच गई केवल भीतर की बात । तो भीतर की पूजा की जा सकती है। भीतर से तो कोई डर नहीं है। जीसस की हत्या का अर्थ यह है कि तुम्हारे शरीर को समाज बरदाश्त न कर सकेगा; तुम्हारे व्यवहार को, आचरण को बरदाश्त न कर सकेगा। हां, तुम्हारी आत्मा की हम पूजा करेंगे सदा-सदा ।
इसलिए संत जब मर जाते हैं तभी पूज्य हो पाते हैं। संत को जीते जी पूजना थोड़े से दुस्साहसी लोगों की ही बात है। समाज और भीड़ संत को जीते जी नहीं पूज सकती। संत बड़ी दुविधा में डाल देता है। क्योंकि संतं दुविधाओं का जोड़ है, विरोधों का समागम है।
अब हम सूत्र में उतरने की कोशिश करें ।
'तुम उसकी हत्या कर देते हो जो आक्रमण करने में साहसी है। तुम उसे जीने देते हो जो आक्रमण नहीं करने में साहसी है। इन दोनों में कुछ लाभ भी हैं और कुछ हानि भी। '
क्या लाभ हैं और क्या हानियां हैं, विचारणीय है। जो भयभीत आदमी है उसके कुछ लाभ भी हैं। बड़े से बड़ा लाभ तो यह है कि जो जान लिया गया है उसे वह बचाता है। नहीं तो वह जो निर्भीक आदमी है, वह उस सबको गंवा देंगे जो हजारों-हजारों साल में जाना गया है। जो ज्ञान की संपदा है उसे भयभीत आदमी बचाता है। वह सांप की तरह कुंड मार कर बैठ जाता है अतीत पर; वह तुम्हें छूने नहीं देता, परंपरा तोड़ने नहीं देता; लीक से उतरने नहीं देता ।
लीक का मतलब ही यह है कि हजारों-हजारों साल के अनुभवों का निचोड़ है वह । किसी एक आदमी के कहने पर लीक छोड़ी नहीं जा सकती। तुम एक हो; वह हजारों-हजारों वर्षों का अनुभव है। तुम भटका सकते हो; तुम निचोड़ को गंवा देने का कारण बन सकते हो। और वह जो लीक है वह भी तो बुद्ध पुरुषों के ही चरणों का चिह्न है।
इसे थोड़ा समझ लें। वह भी तो कभी संतों ने चल कर ही उस रास्ते को निर्मित किया था जिसको आज भयभीत आदमी पकड़े हुए है। वह उसे छोड़ने न देगा। अगर भीरु लोग न होते तो बुद्ध के वचन न बचते । कौन बचाता ? अगर भीरु लोग न होते तो मंदिरों में प्रतिमाएं न होतीं महावीर की कौन बचाता ? अगर निर्भीक लोगों की बातें सुनी गई होतीं तो न मंदिर होते, न मस्जिद होती, न बुद्ध का स्मरण होता, न क्राइस्ट का स्मरण होता । सब खो गया होता। क्योंकि निर्भीक सदा तुम्हें लीक के बाहर ले जाता है।
इसे थोड़ा बारीकी से समझो तो भीरु बचाता है। वह संरक्षक है। वह नये को पैदा नहीं कर सकता, लेकिन एक बार नया पैदा हो जाए तो वह उसे बचाता है। वह नये को पैदा होने में सहायता भी नहीं दे सकता, वह नये का दुश्मन है। लेकिन पुराने का प्रेमी है। एक दफा नये को तुम पैदा कर दो तो नया पुराना हो जाता है। पुराना होते ही से भी उसे बचाता है।