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संत स्वयं को प्रेम करते हैं
अकड़ोगे तो गिरोगे। अगर अंधेरे में रहते निर्भय होने की कोशिश करोगे तो सिर टकराएगा दीवालों से, लहूलुहान होओगे।
तो लाओत्से कहता है, जब लोगों को बल का भय नहीं रहता, तब उन पर महाबल उतरता है। वे अपने ही हाथ से दंडित होते हैं।
. संत क्या करे? इन लोगों को, जो भय में जीते हैं और कभी-कभी निर्भय होने की कोशिश करके अपने ही हाथ से दंडित होते हैं, क्या इनकी निंदा करे जैसा कि साधु करते रहे हैं?
लाओत्से कहता है, 'नहीं, उनके निवासगृहों की निंदा मत करो, उनकी संतति का तिरस्कार मत करो। क्योंकि तुम उनका तिरस्कार नहीं करते, इसलिए तुम खुद भी तिरस्कृत नहीं होओगे।'
साधुओं की आम वृत्ति है असाधुओं की निंदा करना। साधुओं को सुनने तुम जाओगे तो तुम असाधुओं के प्रति सिवाय गाली-गलौज के और कुछ भी न पाओगे। हां, गाली-गलौज बड़ी सुसंस्कृत होगी; तुम शायद पहचान भी न पाओ; बड़ी अलंकृत होगी। लेकिन काव्य में भी गाली ही छिपी होगी। उनके बड़े से बड़े उपदेश में भी निंदा छिपी होगी-तुम्हारे भय की, तुम्हारे लोभ की, तुम्हारी कामवासना की, तुम्हारे क्रोध की, तुम्हारे नारकीय जीवन की। उनके कारण तुम्हारे जीवन को वे नारकीय कहते हैं। उनकी व्याख्या निंदा की है। और तुम्हारी निंदा से छिप-छिपे वे अपनी प्रशंसा करते हैं। तुम्हारी निंदा तो केवल बहाना है, असलियत में वे अपनी प्रशंसा करते हैं।
इसे थोड़ा समझो। यह कहना तो बहुत मुश्किल है कि मैं भला आदमी हूं। क्योंकि जिससे भी कहो वह भी कहेगा, क्या अपने ही मुंह मियां मिट्ठ बनते हो! यह तो कहना मुश्किल है कि मैं भला आदमी हूं। तब एक रास्ता है इसको कहने का कि तुम यह भी न कह सको कि मियां मिट्ठ बनते हो। मैं कहता हूं कि तुम बुरे हो। तुम्हारी बुराई को मैं ऐसा रंगता हूं कि अनजाने तुम्हारी बुराई की पृष्ठभूमि में मेरी भलाई की रेखा उभरनी शुरू हो जाती है।
तुमने सुनी होगी प्रसिद्ध कहानी कि अकबर ने अपने दरबारियों को कहा एक लकीर खींच कर कि इसे छोटा कर दो बिना छुए। दरबारी तो न कर सके, लेकिन बीरबल उठा और उसने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी। उसे छुआ ही नहीं, और लकीर छोटी हो गई। बड़ी लकीर खींच दी।
साधु तुम्हारी निंदा करते हैं; वे तुम्हें छोटा करते जाते हैं; उनकी लकीर बड़ी होती जाती है। वे तुम्हें बिलकुल क्षुद्र कर देते हैं, वे महान हो जाते हैं।
संत का लक्षण है कि वह तुम्हारी निंदा न करेगा। क्योंकि निंदा तो बताती है कि वह साधु है, संत नहीं। और साधु-असाधु दोनों एक ही जगत के निवासी हैं। वे एक-दूसरे की तरफ पीठ करके चल रहे हैं, लेकिन उनमें गुणात्मक भेद नहीं है। एक चोरी करता है; एक ने अचौर्य की कसम खा ली है। एक कामवासना में लिप्त है; दूसरा कामवासना से लड़ने में लिप्त है। लेकिन लिप्तता में कोई भेद नहीं है। चाहे तुम स्त्रियों में आकर्षित होकर उनके सपने देखो और चाहे तुम स्त्रियों से भयभीत होकर उनके सपनों से लड़ो, तुम्हारी नजर तो स्त्रियों पर ही लगी रहती है।
और अक्सर होता ऐसा है कि भोगी तो चाहे स्त्री को भूल भी जाए, त्यागी नहीं भूल पाता। त्यागी को तो चारों तरफ स्त्री घेरे रखती है उसके सपने में, उसकी कल्पना में। और जितना उसके सपने में और कल्पना में घेरती है स्त्री, उतना ही वह जोर से निंदा करता है। वह कहता है, स्त्री नरक की खान। जितना वह घबड़ाता है भीतर स्त्री के रूप से, उतना ही बाहर वह निंदा करता है।
ऐसा हुआ। एक झेन फकीर औरत हुई। युवा थी, बहुत सुंदर थी। और कथा है कि जिन-जिन आश्रमों में गई उन सबने उसे इनकार कर दिया। कोई आश्रम उसको दीक्षा देने को तैयार नहीं। कारण उन्होंने बताया कि तू इतनी सुंदर है कि हमारे साधुओं को बड़ी मुश्किल खड़ी होगी; तू कहीं और जा। लेकिन कोई लेने को राजी न था; कोई उसे दीक्षा
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