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संत स्वयं को प्रेम करते हैं
इस बात को ठीक से समझ लो, भय में कोई धार्मिक नहीं हो सकता और भय में कोई आस्तिक नहीं हो सकता। भय में जो आस्तिकता है वह झूठी है, वह खोटा सिक्का है। उसे तुम यहां भला चला लो, यहां भला लोगों को तुम धोखा दे लो, क्योंकि लोग भी तुम जैसे ही अंधकार में हैं, कुछ अड़चन नहीं है उनको धोखा देने में; लेकिन तुम परमात्मा को धोखा न दे पाओगे, तुम समग्र को धोखा न दे पाओगे। तुम्हें भय के बाहर आना होगा। . इस भय के कारण ही तुम्हारा धर्म, तुम्हारा समाज, तुम्हारी सभ्यता, तुम्हारी संस्कृति, सब भय-आधारित हो गए हैं। राज्य भी तुम्हें डराता है; तभी तुम्हें काबू में रख पाता है। धर्मगुरु भी तुम्हें डराते हैं; तभी तुम्हें काबू में रख पाते हैं। तुम जहां जाओ वहीं तुम्हारे लिए दंड का विधान है। तुम इतने भयभीत हो कि तुम एक ही भाषा समझते हो जो दंड की है, या पुरस्कार की है, वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
छोटे बच्चे और बड़े-बूढ़ों में कोई फर्क मालूम नहीं होता, कोई विकास होता नहीं दिखाई पड़ता। छोटे बच्चे को स्कूल में हम डराते हैं कि पिटेगा, मारा जाएगा, दंड दिया जाएगा, अगर ठीक व्यवहार न किया। और अगर ठीक व्यवहार किया तो पुरस्कृत किया जाएगा, मिठाइयां भेंट मिलेंगी। वही खेल जारी है बूढ़े आदमी को भी। अगर ठीक से जीए तो स्वर्ग, अगर जरा गैर-ठीक जीए कि नरक। बच्चों में और बूढ़ों में कोई भेद नहीं मालूम पड़ता। वही भय
और प्रलोभन का जाल है। राज्य भी वही करता है। अगर ठीक-ठीक व्यवहार किया तो भारत-रत्न बन जाओगे; अगर ठीक व्यवहार न किया तो कारागृह में सड़ोगे। नीति भी वही : ठीक व्यवहार किया तो समाज सिर आंखों पर ले लेगा; अगर जरा समाज की लीक से यहां-वहां हटे कि निंदा के स्वर गूंज उठेंगे, आंखों में सब तरफ तुम्हें अपमान ही दिखाई पड़ेगा, सम्मान खो जाएगा। यह भयभीत आदमी के कारण राज्य भी, धर्म भी, नीति भी, सब भयभीत आदमी 'को सम्हालने के लिए भय से भर गए हैं।
जो आदमी प्रेम को उपलब्ध होता है और प्रेम को उपलब्ध आदमी ही संतत्व को उपलब्ध होता है-वह भय से नहीं जीता; न भय के आधार से उसकी नीति होती है। तुम अगर दान देते हो तो भय के कारण कि नरक जाने से बच जाओ, कि स्वर्ग का पुरस्कार मिले। प्रेम से भरा हुआ आदमी देता है, क्योंकि देने में आनंद है; देने के बाहर और कोई उपलब्धि नहीं है। देता है, क्योंकि देना इतनी अदभुत मनोस्थिति है, देने में ऐसे फूल खिल जाते हैं भीतर आत्मा में जो और किसी तरह नहीं खिलते, देने के क्षण में ऐसी वीणा बजने लगती है हृदय में जो और कभी नहीं बजती। देने के बाहर कोई पुरस्कार नहीं है; देने में ही पुरस्कार है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लो, क्योंकि तुम्हारे भय के कारण सब सिद्धांत विकृत हो गए हैं। तुम्हें समझाया जाता रहा है कि अगर तुम अच्छा कर्म करोगें तो अगले जीवन में अच्छा जीवन पाओगे; अगर बुरा कर्म करोगे तो अगले जीवन में बुरा जीवन पाओगे।
अगले जीवन तक रुकने की जरूरत क्या है? आग में हाथ अभी डालोगे, अभी जलोगे कि अगले जीवन में जलोगे? फूल को नाक के पास ले जाओगे तो नासापुट अभी गंध से भर जाएंगे कि अगले जीवन में भरेंगे? अगले जीवन तक टालने की जरूरत क्या है? यह तुम्हारा परमात्मा बड़ा उधार मालूम पड़ता है। परमात्मा तो बिलकुल नगद है; अभी है। कल तक टालने की जरूरत क्या है? अस्तित्व कुछ भी टालता नहीं। अभी तुम झाड़ से गिरोगे तो फ्रैक्चर अभी होगा कि अगले जीवन में होगा? ग्रेविटेशन का नियम अभी परिणाम दे देगा, इसी क्षण दे देगा। कौन हिसाब रखेगा इस सब का कि तुम अगले जीवन में चढ़े थे वृक्ष पर और अब इस जीवन में गिरोगे? इस जीवन में चढ़ोगे और अगले जीवन में गिरोगे, कौन यह हिसाब रखेगा? कहां यह हिसाब रहेगा?
नहीं, प्रकृति बिलकुल नगद है। तुम अभी क्रोध करो, अभी जलोगे, अभी झुलसोगे, अभी पा लोगे कष्ट। तुम अभी पुण्य करो, अभी हर्षोन्माद से भर जाओगे, अभी तुम्हारे जीवन में एक पुलक और नृत्य आ जाएगा। जीवन नगद
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