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नुष्य दो प्रकार के हैं। एक वे जो अंधेरे में जीते हैं और दूसरे वे जो आलोक में जीते हैं। अंधेरे में जीने वाले को स्वयं का कोई पता नहीं। और जिसे स्वयं का पता नहीं है उसे दूसरों का क्या पता हो सकता है। उसका सारा जीवन ही एक गहन भ्रांति होता है। उसका जीवन ऐसा है जैसा एक सपना, जो निद्रा में देखा गया है और जागने पर जिसकी धूल भी हाथ में नहीं आती। जो आलोक में जीता है-आलोक का अर्थ ही है कि वह स्वयं के प्रकाश को उपलब्ध हुआ वह अपने को भी देखता है, दूसरे को भी देखता है। उसका जीवन आंख वाले का जीवन है, जाग्रत का जीवन है। उसके जीवन में ही सत्य की प्रतीति होती है।
जो अंधेरे में जीता है उसका सारा जीवन भय की एक लंबी कथा होगी। वह भयभीत ही जीएगा। कारण स्पष्ट है। जिसे अपना पता नहीं वह कंपता ही रहेगा। उसके पास खड़े होने की जगह नहीं। और उसे खुद का भरोसा नहीं है। उसे यह भी भरोसा नहीं है कि वह है भी या नहीं। उसे यह भी पक्का पता नहीं है-कहां से आता है, कहां जाता है। कुछ सूझ-बूझ नहीं पड़ता; अंधेरे में टटोलता है। अंधे आदमी की तरह कोशिश करता है कि मार्ग को खोज ले। लेकिन सिवाय भटकन के और कुछ हाथ लगता नहीं।
अंधेरे में जीने वाला आदमी जीवन भर भयाक्रांत जीता है। यह उसका लक्षण है। हर चीज भय से ही उठती है उसके भीतर। अगर वह धन कमाता है तो भय के कारण; शायद धन से सुरक्षा मिल जाए। अगर वह नैतिक आचरण करता है तो भय के कारण कि शायद नीति कवच बन जाए। अगर वह मंदिर जाता है, पूजा-प्रार्थना करता है तो भय के कारण कि शायद परमात्मा का सहारा मिल जाए। भयभीत आदमी का परमात्मा भी भय का ही एक रूप होता है। उसका भगवान उसके भय से ही जन्मता है। वह उसका अनुभव नहीं है; वह उसके भय का प्रक्षेपण है। मानता है परमात्मा को, क्योंकि बिना माने और भी भयभीत होगा। विश्वास से थोड़ा सा भय को सहारा मिलता है, थोड़ी सांत्वना मिलती है। रात अंधेरी भला हो, लेकिन कोई ऊपर बैठा है जो देखता है। कितनी ही जीवन में अर्थहीनता हो, लेकिन अंततः किसी परमात्मा ने सृष्टि को बनाया है; जरूर कोई अर्थ होगा। और मुझे पता न हो, लेकिन उसे पता है। मैं भटकू, लेकिन अगर उसकी शरण गया तो वह मुझे उठा लेगा। ऐसा भयभीत आदमी सोचता है।
मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारे ऐसे भयभीत आदमियों से भरे हुए हैं। वस्तुतः भयभीत आदमी ही वहां जाता है। अंधे ही वहां इकट्ठे होते हैं। अमावस की गहरी रात में ही तुम्हारे सारे तीर्थों का जन्म है। तुम्हारी पूजा, तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारी स्तुतियों की विधियां, गौर से देखना, तुम्हारे भय से उठी हैं। तुम डर रहे हो। तुम कंप रहे हो। वह कंपन ही तुम प्रार्थना बना लेते हो। उसी कंपन से ओंकार का नाद उठ रहा है। ऐसे ही जैसे अंधेरी रात में कोई आदमी एकांत गली से गुजरता है, जोर से गीत गुनगुनाने लगता है। जिसने कभी गीत न गाया उसको भी अंधेरे में गीत गाने का
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