________________
चाँथा प्रश्न : जगत द्वंद्व है, जगत के सभी नियम विपरीत पर खड़े हैं। फिर हमें द्वंद्व के बाहर होने का उपदेश क्यों दिया जाता है? क्या हम जगत के बाहर है?
ताओ उपनिषद भाग ६
हो तो नहीं, लेकिन हो सकते हो। और कोई तुम्हें उपदेश नहीं दे रहा है जगत के बाहर होने का। तुम ही पूछते हुए आए हो कि द्वंद्व में घिरे हैं, बड़ी अशांति है, क्या करें? द्वंद्व में रहोगे तो अशांति रहेगी। क्योंकि जहां दो हैं वहां कलह होगी। पुरानी कहावत है, जहां बरतन होते हैं वहां थोड़े बजते हैं। जब तक एक न रह जाए तब तक शांति हो नहीं सकती। तुम्हें कोई उपदेश नहीं दे रहा है कि तुम निर्द्वद्व हो जाओ। तुम ही पूछते हुए आए हो कि मन अशांत है, संतप्त है, दुखी है, क्या करें? तुम पूछते हो, इसलिए मैं कहता हूं कि दुखी तुम इसलिए हो कि तुम अभी दो के साथ हो। और किसी तरह एक को पाना है। एक को पा लो, अशांति मिट जाएगी।
इसलिए महावीर ने तो मोक्ष को जो नाम दिया वह नाम ही कैवल्य है। महावीर ने बड़ा प्यारा शब्द चुना। कैवल्य का अर्थ है बिलकुल अकेले बचे, केवल तुम, कोई न बचा। अकेली चेतना रह गई। तो संघर्ष किससे होगा? द्वंद्व किससे होगा? वही परम शांति का क्षण है।
संसार द्वंद्व है। संसार अशांति है। संसार दुख है। अगर तुम राजी हो दुख से, मजे से राजी रहो। मैं कौन जो तुम्हें खींच कर दुख के बाहर करूं? अगर तुम्हें मजा आ रहा है दुख में; पूरा मजा लो। लेकिन फिर पूछते मत फिरो कि दुख से बाहर कैसे होना? तुम अगर अपनी राजी से, अपनी खुशी से दुखी हो, फिर बिलकुल ठीक है। फिर मैं तुम्हें बाधा न दूंगा। लेकिन तुम्हारी बड़ी अजीब गति है। द्वंद्व से दुखी हो, दुख के बाहर होना चाहते हो, और फिर पूछते हो कि द्वंद्व के बाहर होने का उपदेश क्यों दिया जा रहा है जब सारा संसार ही द्वंद्व है?
सारा संसार द्वंद्व है, लेकिन जिसको यह द्वंद्व पता चलता है वह चेतना अलग है। जो इस द्वंद्व को देखता है, साक्षी है, वह अलग है, वह संसार के बाहर है। द्वंद्व को तो पता भी कैसे चलता कि द्वंद्व है, अगर निर्द्वद्व मौजूद न हो?
इसे थोड़ा समझो। अगर तुम्हारे भीतर कोई शांत केंद्र न हो तो तुम्हें अशांति का पता कैसे चलेगा? किसको. पता चलेगा कि अशांति है? अशांति को पता चलेगा कि अशांति है? अशांति को तो पता ही कैसे चल सकता है अशांति का? कोई शांत केंद्र तुम्हारे भीतर छिपा होना चाहिए जिसको पता चलता है अशांति का। दुख का किसे पता चलता है? अगर दुख ही दुख हो तो दुख का पता ही नहीं चल सकता। तुम्हारे भीतर आनंद का कोई स्वर बज ही रहा । होगा। उसी से तो तुम तौलते हो कि दुख है। नहीं तो तुम तौलते कैसे हो? तुम कैसे मुझसे आकर कहते हो कि मैं दुखी हूं? कैसे कहते अशांत हूं? कैसे कहते हो कि अज्ञान में भटक रहा हूं, अंधकार में जी रहा हूं? तुम्हें कुछ न कुछ अनजानी पहचान है प्रकाश की। तौलोगे कैसे अन्यथा?
वह जहां से यह धीमी-धीमी, अनजानी पहचान आ रही है, वह जगह द्वंद्व के बाहर है। और तुम चाहो तो वहां थिर हो सकते हो। लेकिन तुम्हारी मौज। संसार में ही रहना हो, द्वंद्व में ही रहना हो, मजे से रहो।
लेकिन वहां तुम रहना नहीं चाहते। तुम्हारी तकलीफ मुझे पता है। तुम्हारी तकलीफ यह है कि जो नहीं हो सकता, वह तुम करना चाहते हो। तुम रहना तो चाहते हो द्वंद्व में, और आनंदित रहना चाहते हो। मनुष्य की सारी प्रार्थनाएं एक वाक्य में संगृहीत हैं कि हे परमात्मा! कोई ऐसी तरकीब बताओ कि दो और दो चार न हों। बस, असंभव किसी तरह हो। क्योंकि तुम्हें लगता है द्वंद्व में रागरंग भी है; तुम्हें लगता है द्वंद्व में सुख भी है; सारी वासनाएं उस तरफ ले जाती हैं। चहल-पहल वहां है। मगर उस चहल-पहल में अशांति है। तो तुम मेरे पास चले आते हो-या किसी के पास जाते हो—कि शांति कैसे हो जाए? वहीं अड़चन शुरू होती है। तुम चाहते हो कि द्वंद्व को भोगते हुए शांत कैसे हो जाएं।
140