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ताओ उपनिषद भाग६
कामवासना के दो रूप हैं। राह पर पत्थर पड़ा हो। एक तो यह रूप है कि तुम वहां जाकर अटक जाते हो। अब वहां से आगे कैसे जाएं? दूसरा कामवासना का यह रूप है कि तुम पत्थर पर चढ़ जाते हो, पत्थर को सीढ़ी बना लेते हो। तो अब तक तुम चल रहे थे जिस तल पर, अब तुम्हारा तल ऊपर हो जाता है।
नासमझ सीढ़ियों को पत्थर समझ लेते हैं; समझदार पत्थरों को सीढ़ियां बना लेते हैं। इतना ही फर्क है समझदारी और नासमझी में। तुम्हें पता ही नहीं कि अगर तुम कामवासना को सीढ़ी बना लो तो वही ब्रह्मचर्य बन जाएगी। क्रोध को सीढ़ी बना लो, वही करुणा हो जाएगा। तो क्रोध में करुणा छिपी है। क्रोध तो ऊपर की खोल है, भीतर तो करुणा ही छिपी है। कामवासना तो ऊपर की खोल है, भीतर तो ब्रह्मचर्य ही छिपा है।
थोड़ा सोचो, अगर कामवासना न होती तो तुम ब्रह्मचर्य को कैसे उपलब्ध होते? और ब्रह्मचर्य के आनंद को कैसे उपलब्ध होते अगर कामवासना न होती? तो तुम कामवासना को कामवासना की तरह मत देखो। तुम उसे ब्रह्मचर्य का ही एक कदम समझो।
अगर क्रोध न होता तो तुम करुणा को कैसे उपलब्ध होते? कहो, कोई उपाय है? कोई उपाय नहीं है। क्रोध ही तो करुणा बनेगा। तो तुम क्रोध को क्रोध की तरह क्यों देखते हो? तुम उसके, क्रोध के पूरे विस्तार को क्यों नहीं देखते कि वही अंत में करुणा बन जाता है।
तुम्हारी हालत वैसी है जैसे कोई आदमी खाद को भर कर बगीचे में लाए तो उसमें से बदबू आती है। खाद है सड़ा हुआ, सड़ी गंध उससे उठती है। तुम अगर उतना ही देख लो और समझ लो कि ये बगीचे तो ठीक नहीं। लेकिन तुम्हें खयाल रखना चाहिए कि वही खाद पड़ेगी वृक्षों की जड़ों में, उसी खाद से फूल उठेंगे; उनकी बड़ी सुगंध है। सब दुर्गंधे सुगंधों में बदल जाती हैं। तुम जल्दी कर लेते हो; निर्णय ले लेते हो। उससे मुश्किल में पड़ जाते हो।
थोड़ी देर समझो कि अगर भय तुम्हारे भीतर हो ही न तो तुम्हारे जीवन में अभय की घड़ी कैसे आएगी? तुम अगर भटको न तो तुम पहुंचोगे कैसे? तुमसे अगर भूल न हो तो तुमसे ठीक कैसे होगा? इसलिए मैं तुम्हारे सब पापों को स्वीकार करता हूं। क्योंकि हर पाप में मुझे पुण्य की झलक दिखाई पड़ती है। वहीं पुण्य छिपा है। तुम्हारे वेश्याघरों में ही तुम्हारे मंदिर भी छिपे हैं। तुम जल्दी मत करो, अन्यथा तुम लौट जाओगे वेश्याघर को वेश्याघर समझ कर, मंदिर से वंचित हो जाओगे। मैं जानता हूं, भीतर मंदिर है। तुमसे कहता हूं, डरो मत, आओ।
कुछ मिटाना नहीं है जीवन में; कुछ नष्ट नहीं करना है। प्रत्येक चीज को उसकी पूर्णता तक पहुंचाना है। और हर चीज अपनी पूर्णता पर पहुंच कर अपने से विपरीत में बदल जाती है। यही तो लाओत्से की सारी गहरी से गहरी समझ है कि हर चीज अपनी पूर्णता पर पहुंच कर अपने से विपरीत में बदल जाती है। दुर्गध सुगंध हो जाती है, क्रोध करुणा हो जाता है, काम ब्रह्मचर्य बन जाता है, संसार मुक्ति हो जाता है।
इसलिए तो मैं कहता हूं कि मेरे संन्यासियों को संसार नहीं छोड़ना है। क्योंकि वहीं मोक्ष का राज भी छिपा है। भाग गए वहां से तो हिमालय में भटकोगे; मोक्ष न पा सकोगे। उस बाजार के शोरगुल में ही एक अनंत शांति छिपी है। जिस दिन तुम जागोगे उस दिन तुम पाओगे कि ठेठ बाजार में शांत होने की कला है। कहीं जाना नहीं है, सिर्फ जो तुम हो उसे उसकी पूर्णता की तरफ ले जाना है। रुको मत, बढ़ते जाओ। कहीं मत रुको, जब तक कि ऐसी घड़ी न आ जाए जिसके पार जाने को कोई जगह ही न बचे। जहां तक जगह बचे, चलते जाओ।
झेन फकीर लिंची से किसी ने पूछा कि धर्म क्या है? उसने कहा, बढ़ते जाओ। उसने कहा कि यह भी कोई बात हुई ? बढ़ते जाओ से हम क्या समझें? लिंची ने कहा, सब कह दिया; ज्यादा कहने से बिगड़ जाएगा।
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