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ताओ उपनिषद भाग ६
लोग वापस गए। लोगों ने पुजारी को कहा कि आप तो कहते हैं, लेकिन खुद सुकरात इनकार करता है। और उसने कहा कि कहीं कोई भूल हो गई; तुम जाओ वापस और जाकर बता दो कि सुकरात ने तो कहा है कि मैं इतना ही भर जानता हूं कि कुछ भी नहीं जानता। मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन है! डेलफी के मंदिर की देवी हंसी और उसने कहा, इसीलिए तो हम उसे परम ज्ञानी कहते हैं। इसीलिए कि सुकरात स्वयं कहता है कि मैं अज्ञानी हूं, इसीलिए तो हमने उसे परम ज्ञानी कहा है। भूल कहीं भी नहीं हुई है। और हमारे वक्तव्य में और सुकरात के वक्तव्य में विरोध नहीं है। सुकरात जो कह रहा है उसी के कारण तो हम कहते हैं वह परम ज्ञानी है। अगर उसने स्वीकार कर लिया होता दुर्भाग्य से कि वह परम ज्ञानी है तो हमें अपना वक्तव्य बदलना पड़ता। फिर वह ज्ञानी न रह जाता।
ज्ञान विनम्र है; ज्ञान आत्यंतिक रूप से विनम्र है। ज्ञान का कोई भी दावा नहीं है। 'जो जानता है कि मैं नहीं जानता हूं, वह सर्वश्रेष्ठ है।'
लेकिन ध्यान रखना, सर्वश्रेष्ठ होने के लिए ऐसी घोषणा मत करना। अन्यथा चूक जाओगे। आदमी का मन बहुत बेईमान है। इस वचन को पढ़ कर तुम्हें भी लग सकता है तब तो बात सीधी साफ है; घोषणा कर दो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं और सरलता से सर्वश्रेष्ठ हो जाओ। सर्वश्रेष्ठ होने के लिए ऐसी घोषणा की, तब तो तुम चूक गए। यह सर्वश्रेष्ठ होने का उपाय नहीं है। ऐसा जिसके जीवन में घट जाता है, सर्वश्रेष्ठता छाया की भांति उसका पीछा करती है। यह परिणाम है; उपाय नहीं। तुम सर्वश्रेष्ठ होने के लिए अगर अज्ञान का दावा करोगे तो वह दावा भी ज्ञान का ही दावा है और अहंकार का ही दावा है। तुम यह मत सोचना कि ज्ञान का ही दावा हो सकता है। आदमी चालाक है; अज्ञान का भी दावा कर सकता है। लेकिन दावे में बात है। और अगर सर्वश्रेष्ठ होने के लिए ही दावा कर रहे हो तो कठिनाई में पड़ जाओगे।
और बहुत से धार्मिक लोगों को मैं ऐसी कठिनाई में पड़ा देखता हूं। मेरे पास धार्मिक लोग आ जाते हैं; मुझसे आकर कहते हैं कि पापी तो सुख में हैं, और हम पुण्य कर रहे हैं, फिर भी दुख में हैं। और शास्त्रों में कहा है, पुण्यात्मा को सुख मिलता है, स्वर्ग मिलता है।
वे सुख और स्वर्ग पाने के लिए पुण्य कर रहे हैं। वहीं चूक हो गई। पुण्य का पहला लक्षण तो यह है कि वह निर्लोभ होगा। अगर पुण्य भी लोभी हो तो पाप और पुण्य में फर्क क्या है? अब वे देख रहे हैं बैठे, राह लगाए हुए, हिसाब-किताब किए हुए बैठे हैं कि इतना पुण्य कर दिया और अभी तक सुख नहीं मिला। और शास्त्र में लिखा है, सुख मिलेगा। और जब सुख ही नहीं मिल रहा है तो स्वर्ग का क्या भरोसा करें? जब अभी नहीं मिल रहा तो आगे का क्या भरोसा करें? मिले न मिले। कोई लौट कर बताता भी तो नहीं। कहीं ऐसा न हो कि पाप से भी चूक जाएं, पुण्य करके फिजूल समय गंवाएं, और कुछ भी न मिले।
और उनको दिख रहा है कि पापी को सुख मिल रहा है। इसे थोड़ा समझें। जब किसी को दिखाई पड़ता है कि पापी को सुख मिल रहा है तब वह पुण्य के द्वारा ऐसा ही सुख चाहता है जैसा पापी को पाप के द्वारा मिल रहा है। पुण्यात्मा को तो दिखाई पड़ेगा कि पापी दुखी है। पुण्यात्मा को कभी दिखाई ही नहीं पड़ सकता कि पापी और सुखी हो सकता है। यह असंभव है। सिर्फ पापी मन को ही दिखाई पड़ता है कि पापी सुखी है। यही तुम्हारा सुख है। यही तुम्हारी सुख की परिभाषा है। यही तुम चाहते हो।
तुम भी चाहते हो कि धन का अंबार लग जाए। कुछ हिम्मतवर हैं, वे चोरी करके और तस्करी करके कर रहे हैं। तुम जरा कमजोर हिम्मत के हो, तुम दान-दक्षिणा देकर कर रहे हो। लेकिन चाहते तुम वही हो। तुम जरा डरे हुए
आदमी हो, कायर हो। कहीं पकड़ा न जाओ, तो तुम सुगम उपाय खोज रहे हो। कुछ लोग पुलिस के अधिकारियों को रिश्वत देकर कर रहे हैं; तुम परमात्मा को रिश्वत देकर कर रहे हो। बाकी तुम करना वही चाहते हो। तुम्हारे मन के
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