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ताओ उपनिषद भाग ६
मैंने कहा, बेईमान तुम हो; वह नंबर दो था। तुम सौ के नोट के दो नोट बनाना चाहते थे, इस बात को तुम नहीं सोचते, और उसको तुम बेईमान कह रहे हो! अगर तुम न होओ तो उसके होने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए तुम आधार हो, तुम जड़ हो। और सजा अगर मिलनी चाहिए, तो मुझसे अगर सजा मिलती हो तो पहले तुम, फिर हम उसको देखेंगे। लेकिन पहले तुम सजावार हो। तुम सौ रुपये के दो सौ रुपये करना चाहते थे, इसमें तुम्हें बेईमानी न दिखाई पड़ी? और जो ऐसा करने आएगा, वह साधु होगा? तो वह आदमी साधु नहीं था, यह तुम भी जानते हो। तुम भी साधु नहीं हो, तुम भी जानते हो। तुम दोनों गुंडे हो। दोनों का मेल मिल जाता है।
पापी को तुम देखते हो कि सुख पा रहा है। इसका मतलब है कि वही सुख तुम्हारी भी आकांक्षा है।
नहीं, कोई पापी कभी सुख नहीं पाता। पुण्य के अतिरिक्त कोई सुख है ही नहीं। लेकिन पुण्य तक उठना बड़ा कठिन है। पुण्य का अर्थ है, निर्लोभ दान। पुण्य का अर्थ है, जो तुम्हारे पास है उसमें दूसरे को सहभागी बनाना। पुण्य का अर्थ है, जो सुख तुम्हें मिला है उसमें दूसरे को साझी बनाना-बेशर्त, कुछ पाने की आकांक्षा से नहीं।
कभी तुमने खयाल किया हो, कोई रास्ते पर गिर पड़ा और तुमने उसे हाथ का सहारा देकर उठा दिया। उस क्षण अचानक तुम स्वर्ग में पहुंच जाते हो। कुछ भी तुमने किया नहीं है, सिर्फ हाथ बढ़ा दिया है और उसे उठा लिया है। लेकिन तुम्हारी चाल बदल जाती है। तुम्हारे भीतर की उदासी टूट जाती है। जैसे सुबह हो गई अचानक; जैसे बादल घिरे थे आकाश में, और थोड़ा सा बादल फट गए और तुम्हें नीला आकाश दिखाई पड़ा। न तो उस समय तुम्हें पुण्य का खयाल था, न शास्त्र का खयाल था। बस सहज मनुष्यता के कारण घट गया। कोई आदमी गिर रहा था, तुमने उठा लिया। तुमने सोचा भी न कि इस समय फोटोग्राफर आस-पास है या नहीं? कोई अखबार वाला है या नहीं? खाली सड़क पर उठाने का फायदा क्या है? उस वक्त तुमने यह भी न सोचा कि परमात्मा का कोई आदमी लिख रहा है इस समय या नहीं? तुमने यह भी खड़े होकर विचार न किया कि इसको उठाएंगे तो क्या लाभ होगा भविष्य में? तुमने कुछ सोचा ही न। अनसोचे क्षण में तुम झुके, तुमने उठा लिया। तुमने धन्यवाद की भी आकांक्षा न की। तुम अपनी राह चले गए। अगर उस आदमी ने धन्यवाद भी न दिया तो भी तुम्हें मन में ऐसा न लगा कि कैसा' आदमी था। मैंने इतना सहारा दिया, इसने धन्यवाद भी न दिया!
अगर तुम्हें इतना भी लग जाए कि इसने धन्यवाद नहीं दिया तो तुम चूक गए। तब स्वर्ग बिलकुल पास था और तुम फिर नरक में गिर गए। स्वर्ग होने का एक ढंग है। नरक भी होने का एक ढंग है।
इसलिए खयाल रखना, लोभ के कारण दान दोगे तो वह लोभ का ही विस्तार है। अगर तुम सर्वश्रेष्ठ होने के लिए ऐसी धारणा अपने मन में जमा लो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं तो इससे तुम सर्वश्रेष्ठ भी न हो जाओगे और न न जानने का वह अमृत तुम्हें मिलेगा, न न जानने की वह गहन शांति तुम्हें मिलेगी। तुम चूक जाओगे। और सभी शास्त्रों के साथ तुमने ऐसा ही किया है। तुम अपनी ही समझदारी से नासमझ हो; तुम अपनी कुशलता से चूकते हो।
मेरे पास लोग आते हैं। उनसे मैं कहता हूं कि ध्यान तो घटित होगा, लेकिन तुम ध्यान की बहुत अपेक्षा मत करो। क्योंकि अपेक्षा बाधा बन जाएगी। अगर तुम शांत होकर बैठे हो तो तुम बहुत ज्यादा आकांक्षा मत करो कि कब शांत होंगे। शांति की बात ही छोड़ दो। तुम सिर्फ शांत होकर बैठ जाओ। जब होंगे, होंगे। जल्दी मत करो। तो वे कहते हैं, अच्छा ऐसा ही करेंगे। दो-चार दिन बाद आकर वे कहते हैं कि जैसा आपने कहा था वैसा ही किया, लेकिन शांति अभी तक नहीं आई। चूकते ही जाते हैं। वह भी किया, लेकिन पीछे खड़े वे देखते ही रहे कि शांति आ रही कि नहीं। चार दिन हो गए, अभी तक नहीं आई!
शांति आती है उन क्षणों में जब तुम बिलकुल मौजूद नहीं होते। तुम्हारी मौजूदगी अशांति है। जब तुम इतने गैर-मौजूद हो जाते हो, सारी आकांक्षाएं, वासनाएं, चिंताएं छोड़ कर बैठ रहते हो, जैसे कुछ करने को नहीं है, कुछ
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