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ताओ उपनिषद भाग ६
एक ईंट के टुकड़े पर वही मंत्र लिख कर दे दिया जो पहले लिखा था-वही दवाई का नाम। क्योंकि उसने कहा कि मंत्र लिख देना आप। ईंट तो हमारे गांव में भी है, लेकिन मंत्रसिक्त बात ही और है।
अब तो प्लेसबो पर सारी दुनिया में प्रयोग हुए हैं। और पाया गया है कि कोई भी दवा हो, सत्तर प्रतिशत मरीज तो ठीक होते ही हैं। इसलिए दवा का कोई बड़ा सवाल नहीं मालूम पड़ता।
क्या ज्ञान है? बुद्ध ने ज्ञान की परिभाषा की है। जिससे काम चल जाए। यह समझ में आती है परिभाषा। ज्ञान का यह अर्थ नहीं कि यह सत्य है; ज्ञान का इतना ही अर्थ है कि जिससे काम चल जाए। वही ज्ञान है, कामचलाऊ ज्ञान है। जब काम न चले तो अज्ञान हो जाता है वही। जब काम चला देता है तो ज्ञान हो जाता है वही।
डाक्टरों को पता है कि जब भी कोई नयी दवा निकलती है तो पहले तीन-चार महीने बहुत काम करती है, फिर धीरे-धीरे असर कम होने लगता है। दवा वही; असर क्यों कम होने लगता है? पहले जब दवा निकलती है, नयी दवा, तो तीन-चार महीने तो ऐसा काम करती है जादू का कि लगता है कि अब इससे बेहतर दवा इस बीमारी के लिए नहीं हो सकेगी। क्योंकि डाक्टर भी नये के भरोसे से भरा होता है; मरीज भी नयी दवा के भरोसे से भरा होता है। और जब मरीज शुरू में ठीक होते हैं तो दूसरे मरीजों में भी संक्रामक खबर फैल जाती है कि यह दवा काम करती है।
लेकिन फिर धीरे-धीरे उत्साह तो सभी चीजों में क्षीण हो जाता है। चार-छह महीने में डाक्टर का उत्साह भी क्षीण हो जाता है। एकाध-दो मरीज ऐसे भी निकल आते हैं जिनको तुम ठीक ही नहीं कर सकते। उनके कारण दवा पर भरोसा गिर जाता है। जिद्दी तो सब जगह होते हैं। तीस परसेंट लोग जिद्दी होते हैं हर चीज में। बीमारी में सौ में से सत्तर आदमी जिद्दी नहीं होते, तीस आदमी जिद्दी होते हैं। वे किसी चीज में भरोसा नहीं उनका। वे पक्के नास्तिक हैं हर चीज में। हर चीज को वे इनकार की भाषा में देखते हैं। इस कारण उन पर कोई परिणाम नहीं होता। जैसे ही वे आदमी आ गए, और उन पर परिणाम न हुआ, मरीजों में भी खबर पहुंच जाती है कि अब काम न हो सकेगा। यह दवा भी गई। तब तत्क्षण दूसरी दवा खोजनी पड़ती है।
जो काम करे वह ज्ञान। मगर यह तो बड़ी कमजोर परिभाषा हुई। ज्ञान की परिभाषा तो होनी चाहिए : जो सदा है वही ज्ञान। लेकिन वैसा ज्ञान तो मनुष्य के पास नहीं है। वैसा ज्ञान तो तभी उपलब्ध होता है जब तुम अपनी मनुष्यता को भी छोड़ कर अतिक्रमण कर जाते हो। और तुम्हारी जानकारियां सिर्फ अज्ञान को छिपाने के उपाय हैं। उससे तुम जी लेते हो सुविधा से। लेकिन सुविधा से जी लेने का नाम जीवन के रहस्य को जान लेना नहीं है।
यह दूसरी बात। और तीसरी बात; फिर हम सूत्र में प्रवेश करें।
जब भी तुम किसी चीज को जानते हो तो जानने का अर्थ ही होता है कि तुममें और जिसे तुम जान रहे हो एक फासला है। वहां तुम बैठे हो, मैं तुम्हें देख रहा हूं। यहां मैं बैठा हूं, तुम मुझे देख रहे हो। अगर हम बहुत करीब आ जाएं तो देखना कम होने लगेगा। अगर हम अपने चेहरे बिलकुल करीब कर लें, तो हम देख ही न पाएंगे। अगर हम दोनों की आंखें इतने करीब आ जाएं कि एक-दूसरे को छूने लगे, तो फिर कुछ भी न दिखाई पड़ेगा। ज्ञान के लिए फासला चाहिए, दूरी चाहिए। और यही अड़चन है। क्योंकि जिससे हम दूर हैं उसे हम जान कैसे सकेंगे?
___ इंद्रियां उसे ही जान सकती हैं जो दूर है। और परमात्मा को, सत्य को जानने का एक ही उपाय है कि वह इतने पास आ जाए, इतने पास आ जाए कि हम और उसके बीच कोई भी रत्ती भर का फासला न रहे। तो परमात्मा को इंद्रियों से न जाना जा सकेगा। क्योंकि इंद्रियां तो दूर को ही जान सकती हैं। अतींद्रिय अनुभव से ही परमात्मा को जाना जा सकेगा। लेकिन तुम्हारा तो सारा ज्ञान इंद्रियों का है। कुछ तुमने आंख से जाना है, कुछ हाथ से जाना है, कुछ कान से जाना है। लेकिन सब जाना है इंद्रियों से। इंद्रियां मन के द्वार हैं। जो-जो इंद्रियां जान कर लाती हैं, मन को दे देती हैं। मन ज्ञानी बन जाता है। मन के पीछे छिपी है तुम्हारी चेतना।
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