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ताओ उपनिषद भाग ६
प्रगाढ़ता से जीओगे तो बुराई भी आएगी। और तुम्हें संस्कृत होना है, सभ्य होना है, सज्जन होना है, साधु बनना है। असाधु को काट कर तुम्हारा आधा जीवन काट दिया गया है। अगर परमात्मा भी असाधुता को काट दे संसार से तो परमात्मा भी तुम जैसा ही रुग्ण, खोजता फिरेगा किसी गुरु को कि जीवन को कैसे सीखें? कि जीवन को कैसे साधे?
जीवन में बुराई भलाई का अनिवार्य अंग है, अंधेरा प्रकाश के साथ-साथ है, मृत्यु जीवन का अंग है।
लाओत्से कहता है, न तो तुम साध सकोगे, न तुम समझ सकोगे, यद्यपि बात समझने में आसान है और साधने में भी।
"क्योंकि मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है।' वह क्या है सिद्धांत लाओत्से का? उसका मूल आधार क्या है?
उसका मूल आधार है : जीवन को तुम बेशर्त स्वीकार करो। बेशर्त शब्द स्मरण रखो। जीवन पर कोई शर्त मत लगाओ। क्योंकि तुम्हारी सब शर्ते जीवन को काटेंगी। जीवन को निषेध मत दो। जीवन को विधेय बनाओ। द्वार बंद मत करो; सब बंद द्वार खोल दो। जीवन अपने आप में परिपूर्ण है, तुम्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं है। तुम उसमें सुधार करना बंद करो। सुधार करने से ही तुमने उसमें बिगाड़ कर दिया है। सुधार-सुधार कर ही तुमने जहर डाल दिया है।
लाओत्से का मूल सिद्धांत है : जीवन को बेशर्त स्वीकार करो। डरो मत; कुछ भी खोने को नहीं है। डरोगे तो भी मरोगे; तो भी सब खो जाएगा जो तुम्हारे पास है। जी लो अभय से, परिपूर्ण अभय से।
लेकिन तुम्हारे भीतर, जब मैं यह कह रहा हूं तब भी मैं जानता हूं, बेचैनी आ गई होगी-अभय से जी लो! फिर पाप का क्या होगा? अभय से जी लो! फिर बुराई का क्या होगा? अभय से जी लो! फिर नियम, शास्त्र, समाज, सभ्यता, संस्कृति, इसका क्या होगा? और बड़े आश्चर्य की तो बात यह है कि अगर तुम अभय से जीओ तो पाप धीरे-धीरे परमात्मा में लीन हो जाता है। निषेध तुम करो ही मत तो निषेध करने को कुछ बचता ही नहीं; सभी विधेय हो जाता है। तुम अचानक पाते हो कि जगत एक संगीतपूर्ण लयबद्धता है जिसमें बुराई का भी अपना स्थान है, जिसमें बुराई वर्जित नहीं है; वरन भलाई में स्वाद डालती है। बुराई नमक है जिसके बिना भलाई बेस्वाद हो जाती है।
तुम थोड़ा सोचो। एक आदमी जो क्रोध कर ही न सकता हो उसकी करुणा में कितनी गहराई होगी? छिछली होगी, उथली होगी; उसकी करुणा नपुंसक होगी, उसमें बल न होगा। जो आदमी क्रोध कर सकता हो, जिसने क्रोध पर कोई निषेध न लगाया हो, बल्कि जिसने क्रोध को जीया हो-और जीकर ही क्रोध करुणा बन गया हो, जितना क्रोध को जाना हो उतनी करुणा उपजने लगी हो, जितना अपने भीतर की हिंसा को पहचाना हो उतनी ही भीतर की अहिंसा जगने लगी हो-उसकी करुणा में एक गहराई होगी, अतल गहराई होगी। वह गहराई क्रोध के कारण आ रही है। जिस आदमी ने कामवासना जानी ही नहीं, उसके ब्रह्मचर्य में क्या होगा? उसके ब्रह्मचर्य को तुम नपुंसकता से ज्यादा और क्या नाम दे सकोगे? और नपुंसक ब्रह्मचर्य कोई ब्रह्मचर्य है! लेकिन जिसने वासना का उभार जाना, जिसने वासना का ज्वार जाना, जिसने वासना को जीया, उसके अनंत-अनंत रूपों में पहचाना; उस पहचान, उस स्वाद, उस अनुभव से ब्रह्मचर्य का जन्म होगा। तो ब्रह्मचर्य एक शिखर होगा-जो घाटियों को पार कर गया, जिसने अंधेरी घाटियां छोड़ दीं, जो अंधेरी घाटियों के ऊपर उठ गया। उस ब्रह्मचर्य का रस और, रहस्य और, ऊर्जा और।
__ जीवन में कुछ भी बुरा नहीं है। क्योंकि सभी बुराइयां अंततः भली हो जाती हैं। जो बेशर्त जीता है उसे शुरू में तो कठिनाई होगी। क्योंकि चारों तरफ समाज है; चारों तरफ निषेध लिए हुए लोग हैं। चारों तरफ अदालतें, नरक, स्वर्ग, सब खड़े हैं; पंडित, पुजारी, पुरोहित-सब मुर्दा–लेकिन तुम्हें भी मुर्दा बनाने को उत्सुक। स्वाभाविक है यह, क्योंकि जो खुद भी नहीं जी रहा है वह दूसरे को जीने न देगा। जो खुद जीने से वंचित रह गया है उसकी ईर्ष्या
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