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ताओ उपनिषद भाग ६
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अब महावीर बोलते तो थे नहीं, इसलिए कह न सके कि नहीं भई, मैं न देख सकूंगा; मैं अपने काम में लगा हूं। आंखें बंद हैं; बोलते नहीं थे। चुप ही खड़े रहे। बोलते नहीं थे, इशारा भी नहीं करते थे। क्योंकि इशारा भी बोलना है । उसमें कोई सार नहीं, फिर मौन रहने का कोई अर्थ नहीं। वे वैसे ही खड़े रहे। वह आदमी मौन को सम्मति मान कर कि महावीर देख लेंगे; या हो सकता है, गूंगा हो आदमी; गांव चला गया। वह गांव चला गया; गाएं उठीं और जंगल में अंदर चली गईं।
जब वह आदमी लौटा, वहां गाएं नदारद थीं। महावीर वहीं खड़े थे। उसने कहा,
अच्छा तो बने तुम साधु
खड़े हो ! गाएं नदारद कर दीं ! गाएं कहां हैं? और महावीर मौन हैं, इसलिए बोल सकते नहीं । वे वैसे ही खड़े रहे। वह इतना क्रोध में आ गया कि सुनता नहीं है ? बहरा है ? तो अब मैं तुझे बहरा ही बनाए देता हूं। उसने दोनों कान में दो लकड़ियां ठोंक कर पत्थर से अंदर कर दीं; दोनों कान फोड़ दिए। लहूलुहान महावीर खड़े हैं।
कथा कहती है कि इंद्र को, देवताओं को पीड़ा हुई कि इस निर्दोष आदमी को इतना कष्ट ! अकारण !
ये कथाएं भी बड़ी अर्थपूर्ण हैं। ये इतना ही कह रही हैं कि अस्तित्व भी पीड़ा अनुभव करता है जब तुम निर्दोष होते हो। कोई देवता वहां बैठे हैं ऐसा नहीं, कि कोई इंद्र वहां सोच रहा है ऊपर आकाश में बैठा। लेकिन कथा तो सांकेतिक है; अस्तित्व तुम्हारे लिए पीड़ा अनुभव करता है जब तुम निर्दोष होते हो। जब पूरा अस्तित्व अनुभव करता है तुम्हारी सरलता को तब अस्तित्व भी पीड़ित होता है।
इंद्र ने आकर महावीर को कहा कि आप इतनी आज्ञा दें कि मैं आपकी रक्षा के लिए साथ-साथ रहूं। क्योंकि आप हैं मौन, और इस तरह की दुर्घटनाएं बड़ी पीड़ादायी हैं। महावीर ने - यह तो कोई बाहर की वाणी की बात नहीं थी, क्योंकि वे तो मौन थे, बाहर तो बोल नहीं सकते थे, लेकिन भीतर उनके भाव ने उत्तर दे दिया, इंद्र तो भाव को समझेगा—उत्तर दे दिया कि नहीं, इसके द्वारा भी बहुत कुछ मिला है, इस पीड़ा से भी बहुत कुछ पाया है, क्योंकि पीड़ा बाहर-बाहर रही और भीतर का आनंद अखंडित रहा। यह बड़ी अच्छी परीक्षा रही; धन्यवाद है उस चरवाहे का ! उसने एक अवसर दिया पीड़ा के ऊपर उठने का । तो यह अकारण नहीं है; इसलिए रक्षा की कोई जरूरत नहीं है।
असंघर्ष का अर्थ है कि शत्रुता नहीं है। यह अस्तित्व घर है; हम यहां कोई अजनबी नहीं हैं। और अस्तित्व हमारी सार-सम्हाल रख रहा है, इसलिए लड़ना किसी से भी नहीं है। और जो आ भी जाए लड़ने वह भी छिपा हुआ मित्र ही है, शत्रु के भीतर छिपा हुआ मित्र है।
जीसस ने कहा है, रेसिस्ट नाट ईविल । बुराई से भी संघर्ष मत करो। क्योंकि जिससे तुम संघर्ष करोगे उसी जैसे हो जाओगे। संघर्ष ही मत करो। असंघर्ष सूत्र हो जाए।
'इसे ही मनुष्यों को प्रयोग करने की क्षमता कहते हैं । '
और लाओत्से कहता है, जो असंघर्ष को उपलब्ध हो जाता है वह मनुष्यों का उपयोग करने लगता है। अनजाने सारा अस्तित्व उसके लिए सहयोगी हो जाता है; सारे मनुष्य उसके लिए सहयोगी हो जाते हैं; वे उसके चाकर हो जाते हैं; बिना जीते वे उससे हार जाते हैं; बिना उन्हें हराने की कोशिश किए वह अचानक पाता है कि सभी उसके चाकर हो गए हैं ।
'इसे ही मनुष्यों को प्रयोग करने की क्षमता कहते हैं। यही है अस्तित्व की ऊंचाई को छूना ।'
जब तुम्हारे जीवन में कोई संघर्ष न रहा, एक मैत्री का विराट भाव व्याप्त हो गया, तो तुमने अस्तित्व के ऊंचे से ऊंचे शिखर को छू लिया। क्योंकि इसी दशा का नाम प्रेम है।
'अस्तित्व का यह ऊंचे से ऊंचा शिखर, यही है स्वर्ग का सखा ।'
और इसी के आस-पास स्वर्ग बसा है। प्रेम के आस-पास बसा है स्वर्ग और असंघर्ष से उपलब्ध होता है प्रेम |