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पीस सौ पांच में
भी उन्होंने बड़ाल में, एटम और
असंघर्षः सारा अस्तित्व सहोदन है
इसलिए जापान और चीन में योद्धा का शिक्षण ध्यान का शिक्षण है। ऐसा दुनिया में कहीं भी नहीं हुआ। और इसलिए जैसी कुशलता जापानियों ने पाई है युद्ध की कला में वैसी कोई जाति नहीं पा सकी। छोटी कौम है जापानियों की, लेकिन उन्होंने पहली दफा उन्नीस सौ पांच में रूस को चारों खाने चित्त कर दिया। पहली दफा पूरब के किसी देश ने पश्चिम के देश को युद्ध में हराया। और दूसरे महायुद्ध में भी उन्होंने बड़ी अदभुत स्थिति प्रकट की। और एटम और हाइड्रोजन बम अगर न गिराया जाता तो जापानियों को मिटाना मुश्किल था। असल में, एटम और हाइड्रोजन बम गिरा कर अमरीका ने कोई बहादुरी का लक्षण नहीं दिखाया। यह तो कमजोरी की ही बात हुई। यह तो ऐसा ही हुआ कि दूसरे के पास तलवार न हो और तुम तलवार भोंक दो। यह तो केवल शस्त्र की ही खूबी रही, बहादुरी की न। और जापान ने प्राण कंपा दिए सारे यूरोप और पूरे अमरीका के। क्योंकि जापानी जिस निर्भय से युद्ध में जाता है, कोई दूसरी कौम नहीं जाती; जिस शांति से युद्ध में जाता है, कोई दूसरी कौम नहीं जा सकती। क्योंकि जापान में एक शिक्षण है समुराई का, वह ध्यान का शिक्षण है। युद्ध के मैदान पर तलवार से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है ध्यान का शिक्षण। इतना शांत, उस मुर्गे जैसा। उस शांति से उसका बल आता है। उस शांति से मृत्यु का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
इसलिए तुम चकित होगे कि जापान में ऐसे बहुत से मंदिर हैं जिनमें सिर्फ तलवार चलाना सिखाया जाता है। वे हैं मंदिर, लेकिन ध्यान की प्रक्रिया तलवार चलाना है। वे कहते हैं, तलवार चलाते वक्त तुम तलवार ही हो जाओ,
और तुम इतने शांत हो जाओ कि तलवार चले और तुम न रहो। फिर तुम्हें कोई हरा नहीं सकता। और ऐसी घटनाएं घटी हैं कि जब कभी दो ऐसे व्यक्तियों में युद्ध हो गया, संघर्ष हो गया, जो दोनों ही ध्यान में निष्णात थे, तो निर्णय नहीं हो पाता। महीनों संघर्ष चलता है, निर्णय नहीं हो पाता। क्योंकि जब कोई व्यक्ति बिलकुल शांत होता है तो दूसरे 'व्यक्ति के हमला करने के पहले वह सुरक्षा कर लेता है। वह इंटयूटिव है; वह प्रज्ञात्मक है। जब ध्यान गहरा हो जाता है तो दूसरा व्यक्ति तलवार से कहां हमला करने वाला है-अभी उसने किया नहीं है, अभी सिर्फ सोचा है-पर उसके विचार की प्रतिछवि आ जाती है। और इसके पहले कि वह हमला करे, ढाल जगह पर तैयार होती है; हमले के पहले बचाव हो जाता है। और तब बड़ा मुश्किल हो जाता है। अगर दोनों ही व्यक्ति एक-दूसरे के विचार पढ़ने में कुशल हों तो हार असंभव है।।
एक झेन फकीर के पास, जो तलवार चलाना सिखाता था, एक युवक आया। और उस युवक ने कहा कि मुझे भी स्वीकार कर लें शिष्य की भांति। उस फकीर ने कहा, लेकिन तुम, तुम तो पूर्ण निष्णात मालूम होते हो! तुम्हें शिक्षण की कोई जरूरत नहीं। तुम क्या मुझसे मजाक करने आए हो या मेरी परीक्षा लेने? क्योंकि मैं देख पा रहा हूं कि तुम तो पूरे कुशल हो। तुम उतने ही कुशल हो जितना मैं। उस युवक ने कहा, आप यह क्या कह रहे हैं? मैंने कभी तलवार हाथ में नहीं उठाई, कोई शिक्षण नहीं लिया। नहीं, आपको कुछ भ्रांति हो गई। पर उस गुरु ने कहा, अगर मुझे भ्रांति हो जाए तो मैं गुरु नहीं। तुम मुझे धोखा देने की कोशिश मत करो। तुम मुझे सच-सच कहो। उस युवक ने कहा, लेकिन मैं सच ही कह रहा हूं। तो गुरु ने कहा, तुमने फिर कुछ और तो नहीं सीखा है?
उसने कहा कि मैं सिर्फ...। जापान में टी सेरेमनी होती है, चाय को पीने को उन्होंने एक धार्मिक उत्सव बना रखा है। तो उसने कहा कि मैं तो सिर्फ चाय पिलाने की कला में निष्णात हूं।
तो उस फकीर ने कहा, बात साफ हो गई। कला कोई भी हो, बात तो एक ही है। चाहे तलवार चलाओ, चाहे प्याली में चाय ढालो, लेकिन अगर ध्यान से किया जाए तो दोनों एक ही तरह की बातें हैं; कोई फर्क नहीं है।
__अगर ध्यानपूर्वक चाय ढाली जाए प्याली में, या ध्यानपूर्वक कोई तलवार उठाए, या ध्यानपूर्वक कोई तीर चलाए, या ध्यानपूर्वक कोई रास्ते पर चले-असली सवाल ध्यानपूर्वक होना है। और जब कोई ध्यानपूर्वक जीता है तो उसके जीवन से क्रोध विलीन हो जाता है।
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