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ताओ उपनिषद भाग ६
'और चीजें उदगम की ओर लौट जाती हैं।' जब तुम्हें दिखाई पड़ता है कि हर गंगा गंगोत्री चली आती है वापस। 'तब, और तभी, उदय होता है भव्य लयबद्धता का।'
तब तुम्हारे जीवन में एक संगीत का जन्म होता है, एक ऐसी लयबद्धता का जिसे तुमने कभी जाना नहीं। तब सब अशांति खो जाती है, सब तनाव झर जाते हैं सूखे पत्तों की भांति। तुम्हारे जीवन में एक भीतरी हरियाली आ जाती है, एक अनूठा स्रोत आ जाता है। तुम्हारा सब रेगिस्तान खो जाता है। तुम एक मरूद्यान हो जाते हो। अंधकार मिट जाता है। भीतर का दीया अपनी पूरी शक्ति में प्रकट हो जाता है, दीप्तमान हो जाता है।
___ इस आत्यंतिक लयबद्धता का नाम ही परमात्मा है। लाओत्से परमात्मा का नाम उपयोग नहीं करता, क्योंकि पंडितों ने उसका नाम इतना उपयोग किया है कि वह नाम गंदा हो गया, वह जूठा हो गया। पंडितों ने उस नाम को बिगाड़ डाला। उन पंडितों की बास शब्द में भर गई। इसलिए लाओत्से परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं करता। लेकिन वह उस परमात्मा की ही बात कर रहा है जब वह कहता है परम लयबद्धता।। _ 'दि एनशिएंट्स हू न्यू हाऊ टु फालो दि ताओ एंड नाट टु एनलाइटेन दि पीपुल, बट टु कीप देम इग्नोरेंट। दि रीजन इट इज़ डिफीकल्ट फॉर दि पीपुल टु लिव इन पीस इज़ बिकाज ऑफ टू मच नालेज। दोज हू सीक टु रूल ए कंट्री बाइ नालेज आर दि नेशंस कर्स। दोज हू सीक नाट टु रूल ए कंट्री बाइ नालेज आर दि नेशंस ब्लेसिंग। दोज हू नो दीज टू (प्रिंसिपल्स) आल्सो नो दि एनशिएंट स्टैंडर्ड। एंड टु नो आलवेज दि एनशिएंट स्टैंडर्ड इज़ काल्ड दि मिस्टिक वर्चु। व्हेन दि मिस्टिक व→ बिकम्स क्लियर, फार-रीचिंग, एंड थिंग्स रिवर्ट बैक (टु देयर सोर्स), देन एंड देन ओनली इमर्जेज दि ग्रैंड हार्मनी।'
भव्य लयबद्धता का तभी जन्म होता है। वह लयबद्धता तुम्हारे भीतर छिपी है। तुम रेखाबद्ध चलना बंद कर दो, तुम वर्तुलाकार बना लो जीवन को, तत्क्षण तुम्हें अपने भीतर छिपे हुए संगीत के स्वर सुनाई पड़ने लगेंगे। वे स्वर परमात्मा के स्वर हैं। वे स्वर शून्यता के, मोक्ष के स्वर हैं। और तुम्हारे भीतर ऐसी अनंत फूलों की वर्षा हो जाएगी। उस आनंद की, जिसकी तुम खोज कर रहे हो और दर-दर भीख मांग रहे हो, तुम्हारे भीतर अहर्निश वर्षा होने लगेगी। उसे तुम लेकर ही आए हो। तुम उसे खो रहे हो, क्योंकि तुम एक गलत ढंग से जी रहे हो। तुम्हारे जीने का ढंग रेखाबद्ध है, लीनियर है। और जीने का वास्तविक ढंग सर्कुलर, वर्तुलाकार ही हो सकता है।
जिसने इस प्राचीन मानदंड को पहचान लिया, वह सब पा लेता है जो भी पाने योग्य है। वह मिला ही हुआ है। तुमने उसे कैसे खोया, यह बड़े रहस्य की बात है। तुम कैसे उससे चूकते चले जाते हो, यह बड़ा अदभुत है। ज्ञान से वह न मिलेगा; ज्ञान को पोंछ कर मिटा डालने से। जीने से मिलेगा; जानने से नहीं। प्रेम से मिलेगा; तर्क से नहीं। हृदय से जुड़ेगा संबंध उससे। सारी चेष्टा यही है कि कैसे तुम खोपड़ी से थोड़े नीचे उतर आओ; कैसे तुम हृदय में धड़कने लगो; कैसे तुम विचारो कम, अनुभव ज्यादा करो। इतना ही करना है। फासला बहुत बड़ा नहीं है। सिर से हृदय के बीच जरा सा ही फासला है। चाहो तो एक कदम में भी पूरा कर सकते हो। और चाहो तो अनंत जन्मों तक प्रतीक्षा कर सकते हो। तुम्हारी मर्जी। दरवाजा इस वक्त भी खुला है। लेकिन तुम अगर स्थगित करना चाहो तो तुम्हारी मर्जी। इस क्षण ही पा सकते हो। न तो तुम्हारे कर्म बाधा बनेंगे, न तुम्हारा अतीत का अज्ञान बाधा बनेगा। कोई बाधा नहीं है। क्योंकि अगर हमें कुछ और पाना होता जो हमें मिला ही न था तो बाधा बन सकती थी। पाना हमें अपना स्वभाव है। पाना वही है जो हम पाए ही हुए हैं।
आज इतना ही।
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