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श्रेष्ठता वा जो अकेली
पागल हो। सभी वृक्ष स्वस्थ हैं। आदमियों में पागल होते हैं। जानवरों में भी थोड़े होते हैं जो अजायबघरों में रहते हैं। लेकिन वृक्षों में तो कोई पागल होता ही नहीं। वहां ऊर्जा बड़ी शुद्ध और हरी है, ताजी है। वृक्ष की पत्तियां ही हरी नहीं हैं, वृक्ष के भीतर बहता हुआ हरित-प्रवाह है ऊर्जा का। अगर तुम झुके, तुम वृक्ष के पास से ताजे होकर लौटोगे, तुम नये होकर लौटोगे। वृक्ष भी व्यक्ति है। और बड़ा आदिम है; इसलिए बड़ा शुद्ध है। स्रोत के ज्यादा करीब है; अभी यात्रा पर नहीं निकला है। तुम तो काफी यात्रा कर चुके हो, बहुत दूर जा चुके हो। पहाड़ और भी करीब हैं। नदियां...सभी कुछ। एक दफा पूरब को पता चल गई कुंजी, तो कुंजी कोई साधारण न थी, 'मास्टर की' थी। उससे सभी ताले खुल सकते थे। उससे बुरे से सुरक्षा थी, भले का प्रवाह था; जीवन की ऊर्जा को ताजा करने के उपाय थे।
तुम जरा कोशिश करके देखो। पहले तो तुमको लगेगा कि बड़ा पागलपन है कि एक वृक्ष के पास झुके बैठे हैं। लेकिन जल्दी ही तुम्हें अनुभव होगा कि कुछ बहा आ रहा है जो तुम्हारे मस्तिष्क को तरोताजा कर जाता है, जो भीतर की धूल को झड़ा देता है। और एक दफा तुम समझ गए झुकने का मजा और झुकने का आनंद, फिर तुम्हें कोई राजी न कर पाएगा कि तुम अकड़ कर खड़े हो जाओ। क्योंकि तब तुम जानोगेः अकड़ मौत है; झुकना जीवन है। लोच आत्मा है; बे-लोच हो जाना जड़ता है।
लाओत्से कहता है, 'झुकने और नीचे रहने में कुशल होने के कारण।'
झुकना सीखो। लेकिन झुकना तो कभी-कभी होगा। चौबीस घंटे झुके रहो। तब तुमने दूसरी बात सीख ली: नीचे रहना। गुरु मिला, तुम झुके। वृक्ष पास आया, तुम झुके। नदी के पास गए, तुम झुके। झुकोगे; फिर खड़े हो जाओगे। तो झुकना शुरुआत है। और जब कभी-कभी झुकने में इतना मिलता है तो फिर दूसरा कदम है नीचे हो जाना। फिर झुकने की जरूरत ही नहीं; तुमने होना ही अपना नीचे बना लिया। तुम एक गड्ढे की भांति हो रहे। अब तुम्हें रोज-रोज झुकना नहीं पड़ता, घड़ी-घड़ी झुकना नहीं पड़ता। तुम गड्ढे की भांति हो रहे।
ऐसा हुआ कि जुन्नून, इजिप्त का एक बहुत बड़ा फकीर, अपने गुरु के पास था। वह रोज आता, रोज झुकता। जितने बार मौके मिलते उतने बार झुकता। गुरु कुछ काम के लिए भेजते, फिर लौट कर आता तो फिर झुकता। गुरु कहते, पानी ले आओ! पानी लेने जाता तो जाते वक्त झुकता, लौट कर आता तो फिर झुकता। लोगों में, और शिष्यों में तो मजाक हो गई थी कि जुन्नून पागल है। एक दफा आए, झुक गए। अब दिन भर गुरु के पास रहना हो और दिन भर झुकना हो, तो यह तो पागलपन है। फिर एक दिन लोगों ने देखा बीस साल के बाद-बीस साल ऐसे ही जुनून झुकता रहा–एक दिन लोगों ने देखा कि वह आकर चुपचाप गुरु के पास बैठ गया और झुका नहीं। लोग समझे कि अब यह बिलकुल ही पागल हो गया। अब तक एक अति की, अब दूसरी अति कर रहा है। शिष्यों ने गुरु से पूछा कि जुनून क्या बिलकुल पागल हो गया है? गुरु ने कहा, नहीं, झुकने का अभ्यास पूरा हो गया। अब वह झुका ही हुआ है। अब झुकने की जरूरत नहीं; अब उसने दूसरी अवस्था पा ली जहां वह नीचा ही है। झकना तो पड़ता है, क्योंकि तुम बार-बार खड़े हो जाते हो, बार-बार ऊंचे हो जाते हो। इसलिए झुकना पड़ता है।
तिब्बत में एक पूरा ध्यान का प्रयोग है जिस प्रयोग में शिष्य को एक हजार बार गुरु के सामने झुकना पड़ता है। दो हजार बार, तीन हजार बार, पांच हजार बार। गुरु बैठा है अपने कमरे में, शिष्य बाहर है, काम कर रहा है। लेकिन उसको दिन में पांच हजार बार गुरु की दिशा में साष्टांग दंडवत करनी है। क्या राज है उस पांच हजार बार झुकने का?
और इतना ध्यान लग जाता है उस झुकने से, कुछ और करना नहीं पड़ता। बस इतना ही याद रखना है कि पांच हजार बार दिन में झुक जाना है। ऐसा भी नहीं है कि गुरु के चरण वहीं हों; मील, दो मील दूर भी हो सकता है शिष्य; लेकिन जिस दिशा में गुरु है उस तरफ झुकते रहना है। गुरु से कुछ लेना-देना भी नहीं है। गुरु तो बहाना है। असली बात तो झुकना है। गुरु तो खूटी है। कोई भी खंटी काम कर देगी। झकने को टांगना है।
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