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खण्ड-३, गाथा-५
१७ __ ततो व्यवस्थितं क्षणिकत्व-सत्त्वयोस्तादात्म्यात् क्वचिद् वस्तुनि वर्त्तमानं सत्त्वं क्षणिकत्वयुक्त एव वर्तते इति नास्य सामान्यलक्षणाऽयोगः।
सत्त्वं च भावानां न सत्तायोगलक्षणम् सामान्यादिष्वभावात् अव्याप्तेः, शशशृंगादिष्वति(?पि) भावादतिव्याप्तेश्च । न च शशशृंगादीनामसत्त्वाद् न सत्तायोग इति वाच्यम्, इतरेतराश्रयत्वप्रसक्तेः । तथाहितेषामसत्त्वं सत्तायोगविरहात् तद्विरहश्चाऽसत्त्वात् इति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । अथ अर्थक्रियासामर्थ्यविरहाद् 5 न तेषां सत्तायोगः – ननु एवं यदर्थक्रियासामर्थ्ययुक्तं सत्तायोगस्तस्यैव इत्यर्थक्रियासामर्थ्यमेव सत्त्वमायातमिति व्यर्थः सत्तायोगः। अत एव सामान्यादीनामपि स्वरूपसत्त्वं अर्थक्रियासामर्थ्यात् सिद्धम् 'सत्'प्रत्ययस्य सर्वत्राऽविशेषात् । न च सामान्यादिषूपचरितः 'सत्'प्रत्ययः अस्खलद्वृत्तित्वात् । ____ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्येन विरोधात् एकस्मिन् धर्मिण्ययोगात् 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' (तत्त्वार्थ० ५. साध्य का) बोधक बनेगा - यह (स्पष्ट) वस्तु स्थिति है।' – (यानी महानसादि में धूमादि लिंग एक 10 बार देखा गया, फिर वह अग्नि आदि के साथ प्रतिबद्ध है ऐसा जिस को पता चलेगा, उस व्यक्ति को धूमादि अग्नि आदि का बोधक होगा।)
इस प्रकार से हेतुलक्षण निश्चित होने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि तादात्म्य के जरिये सत्त्व क्षणिकत्व के साथ प्रतिबद्ध है, अतः जिस वस्तु में सत्त्व रहेगा, क्षणिकत्व से युक्त हो कर ही रहेगा। निष्कर्ष, हेतु में सामान्यलक्षण का अयोग नहीं है।
[ नैयायिककल्पित सत्तालक्षण का निरसन ] पदार्थों का सत्त्व भी नैयायिक की तरह सत्तासामान्य के सम्बन्ध से प्रयुक्त नहीं है, क्योंकि सामान्यादि में भी पदार्थ होने के जरिये सत्त्व तो होता है किन्तु वह सत्तासामान्यसम्बन्धरूप न होने से अव्याप्ति दोष लगेगा। तथा शशशृंगादि में सत्त्व न होते हुए भी सत्तासामान्यसम्बन्ध (व्यापक समवाय) रह जाने से अतिव्याप्ति दोष प्रसक्त है। ऐसा मत कहना कि - ‘शशशंगादि तो असत है उन में स रह सकता अत एव अतिव्याप्ति नहीं होगी' – क्योंकि तब इतरेतराश्रय दोष प्रसक्त होगा। देखिये - पूछा जाय कि शशशृंगादि क्यों असत् है - उत्तर होगा कि सत्तासम्बन्ध नहीं है। सत्तासम्बन्ध क्यों नहीं - तो उत्तर देंगे कि असत् है इसलिये। मतलब, स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय प्रसक्त होगा।
[सत्ता का सही लक्षण अर्थक्रियासामर्थ्य 1 __यदि कहें - असत् है इसलिये नहीं किन्तु अर्थक्रियासामर्थ्य से वंचित होने के कारण शशशृंगादि 25 में सत्तासम्बन्ध नहीं है - अब अन्योन्याश्रय टल गया। नहीं, इस ढंग से तो, जो अर्थक्रियासामर्थ्यविशिष्ट होता है उसी में ही सत्तासम्बन्ध होता है। अतः (यानी समनियत पदार्थों का ऐक्य होने से) फलित यह हुआ कि अर्थक्रियासामर्थ्य यही सत्ता है, न कि सत्तासामान्य का सम्बन्ध (यानी सत्तासम्बन्ध निरर्थक है)। इसी लिये तो सामान्यादि में भी, ‘सत्-सत्' ऐसा अनुवृत्ति प्रत्यय प्रसिद्ध होने से, अर्थक्रियासामर्थ्यरूप स्वरूप सत्त्व सिद्ध होगा। सामान्यादि में 'सत्' इत्याकार प्रतीति औपचारिक नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह 30 प्रतीति स्खलनाग्रस्त यानी बाधित नहीं है।
[ उत्पादादिरूप सत्त्वलक्षण की समीक्षा ] जैनमत के अनुसार सत्त्व का जो यह लक्षण कहा गया है - उत्पत्ति-नाश-स्थैर्ययुक्तत्व, वह भी
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