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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ 'न पक्षे वृत्तो' = ऽसपक्षवृत्तो, असपक्षवृत्तित्वादनैकान्तिकः । नन्वेवं पक्षपरिहारेण (?) साध्यभावाभावयोस्तद्वान्व(?न)यं हेतुर्न साध्यधर्मिणीति कथं पक्षो हेतुमानपि साध्यधर्माध्यासितत्वात्।। __ न हि ‘यस्माद(?स्या)नुमेये साध्यं विनापि भावः तत्सद्भावाद्धर्मी साध्यधर्मवान्' इत्यभिधातुं युक्तम् ।
न च साध्यधर्मवृत्तिव्यतिरेकस्वरूपौ सपक्ष-विपक्षी विहाय प्रकारान्तरस्य सम्भवः यत्र पक्षत्वं स्यात् । अन्योन्य5 व्यवच्छेदरूपतया सर्वस्य द्वैराश्यव्यवस्थितेः । हेतोश्च पक्ष-सपक्षादिप्रविभागापेक्षया गमकत्वे काल्पनिकत्वम
नुमानेऽप्यंगीकृतं स्यात्, न वस्तुबलप्रवृत्तम्। तस्मात् साध्यप्रतिबद्धभावतया हेतोर्गमकत्वे साध्यधर्मिण्यपि साध्यधर्मयुक्त एव परमार्थतः सपक्षात्मन्येवासौ वर्तते इति कथं सामान्यलक्षणयोगी न स्यात् ? उक्तं च
“यत् क्वचिद् दृष्टान्टम्) तस्य यत्र प्रतिबिम्बः तद्विदः तस्य तद् गमकं तत्रेति वस्तुगतिः।” इति (हेतुबिन्दु टीकाग्रन्थे पृ० १६ मध्ये) 10 शंका :- असपक्ष यानी विपक्ष की व्यवस्था पक्षभूत व्यक्तियों को अलग कर के ही मान ली जाय
तो कह सकते हैं कि पक्ष में रहनेवाला सद् हेतु असपक्ष (= विपक्ष) वृत्ति नहीं है अत एव असपक्ष (= पक्ष) वृत्ति होने मात्र से अनैकान्तिक भी नहीं है।
उत्तर :- अरे ! तब तो पक्ष को दूर रख कर, साध्यवान् का अन्वय वाला या साध्याभाववान् का अन्वयवाला ही हेतु ठहरा, साध्यधर्मी में रहनेवाला तो हेतु नहीं ठहरा, फिर हेतुमान् होने पर भी साध्यधर्म 15 से युक्त होने से, कैसे उस को ‘पक्ष' सिद्ध करेंगे ?
[ हेतु का लक्षण साध्य के साथ प्रतिबद्धता ] ___ ऐसा तो नहीं कह सकते कि अनुमेय (= पक्ष) में साध्य के विरह में जिस का अस्तित्व है, उस के होने से धर्मी (पक्ष) साध्यधर्मयुक्त है। साध्यधर्म जिस में रहे वह सपक्ष है, जिस में न रहे वह विपक्ष
है, तीसरा तो कोई प्रकार नहीं है जिस को आप ‘पक्ष' कह सकेंगे। जो भी पदार्थ एक-दूसरे के व्यवच्छेदी 20 (= सप्रतिपक्ष) होते हैं वे सब विधि-या-निषेध दो राशि में किसी एक में अन्तर्भूत रहता है। मतलब,
पक्ष एक कल्पना है, उसी के आलम्बन से सपक्ष-विपक्ष के विभाग के अवलम्ब से ही यदि हेतु साध्यबोधक बनेगा तो वहाँ अनुमान में भी काल्पनिकता का ही स्वीकार करना पडेगा, न कि वास्तविकता के जोश से हुआ प्रादुर्भाव।
सारांश, पक्षादि की माथापच्ची को छोड कर इतना ही हेतु-लक्षण समझना चाहिये कि साध्य से 25 प्रतिबद्धता (= व्याप्तता) होने के जरिये ही हेतु साध्यबोधक होता है, वह जब साध्यधर्मी में निश्चित
होगा तो वास्तव में तो सरलता से यह फलित हो सकेगा कि साध्यधर्मयुक्त सपक्ष में ही वह वृत्ति है। इस प्रकार. अब कहिये कि हेत सपक्षसत्त्वरूप सामान्य लक्षण का योगी कैसे नहीं होगा ?
किसी ग्रन्थ में (प्रमाणविनिश्चय में) कहा है कि - "किसी एक प्रदेश में जो देख लिया गया, उस का जिस में (जिस के साथ) प्रतिबन्ध रहेगा उस (प्रतिबन्ध) को जाननेवाले को वह उस का (स्वप्रतिबद्ध
7. 'अत एवान्यत्रोक्तम्' इत्युक्त्वा 'यत् क्वचिद् दृष्टं तस्य... वस्तुगतिः' अन्यत्र = विनिश्चये (सम्भवतः प्रमाणविनिश्चयग्रन्थे) यत् = लिङ्ग क्वचित् = प्रदेशे दृष्टम् = निश्चितम् तस्य = लिङ्गस्य यत्र = वक़्यादौ तद्विदः = प्रतिबन्धविदः तस्य = वह्नः तद् = लिङ्गम् तत्र = 'यत्र दृष्टं तत्रैव नान्यत्र' - इति हेतबिन्दट्टीकाग्रन्थे पृ० १६ मध्ये २-३-२४-२५ पंक्तिष ।
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