Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
४६
अन्वयार्थ
-
श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
=
इस समवसरण भूमि पर त्वया =
=
=
विशिष्ट पापी. अनुभुवि तुम्हारे द्वारा, ईरितः प्रेरित हुआ, अहं मैं धन्यः = धन्य, कृतकृत्यः = कृतकृत्य, (अस्मि हो गया हूं), त्वत्सङ्गमात् तुम्हारे इस सङ्गम अर्थात् साथ से, मम = मेरा, महाभाग्यभाजनत्वं = महान् भाग्य की पात्रता, आगतम् = आ गयी है, यतः = इसलिये, प्रभो! हे भगवान्! स्वभावात् स्वभाव से ही, दीनदयालुः दीनों पर दया करने वाले, तुम, परमेश्वरः = भगवान्, कर्मविद्धे = कर्मों के बंधन में फंसे, नते - विनम्र हुये, दीने दीनता के पात्र, मयि = पर, दथां = कृपा. कुरू
=
त्वं
=
मुझ
करें ।
=
+
=
=
श्लोकार्थ भगवान् महावीर की तीन परिक्रमा करके मानो जन्म, जरा
और मृत्यु को बन्दी बनाकर अर्थात् सीमित या मर्यादित करके. भक्ति से प्रणाम करके और पूजनविधि के अनुसार भगवान् की पूजा करके वह राजा श्रेणिक मनुष्यों के कोठे में बैठ गया और उसने इस प्रकार वचन बोले - हे भगवन्! तुम्हारे दर्शन से आज मुझ पर तुम्हारे द्वारा प्रेरित हुआ मैं धन्य एवं कृतकृत्य हो गया हूं । हे प्रभो ! तुम्हारे इस सङ्गम से अर्थात् आपका साथ मिल जाने से मेरा भाग्य महान् हो गया है मानों महाभाग्यशाली बनने की पात्रता मुझमें आ गयी है। इसलिये स्वभाव से ही दीनों के लिये कृपालु भगवन् कर्मबन्धन में पड़े किन्तु अतिविनम्र मुझ दीन पर कृपा कीजिये । यस्योद्यत्कृपयात्र भव्यनिवहाः संसारघोराम्बुधिम् । तीर्त्वा भुक्तिपदं गताश्च कति ते सद्धर्मकर्माश्रिताः ।। तं संभावयिताधुनाखिलजनो वीरं महार्थं ध्रुवम् । यद्धयानोद्भवशुद्धभाववशतः सिद्धाय सम्प्रार्थते ।। १२२ ।।
+
1
अत्र = इस संसार में, यस्य = जिनकी, उद्यत्कृपया उत्कृष्टकृपा से भव्यनिवहाः = भव्यजनों के समूह, संसारघोराम्बुधिंम् = संसार रूपी घोर समुद्र को तीर्त्वा =
=