Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
त्रयोदशः
३८६ सम्मेदशिखर की यात्रा के कारण ही इस नगर में राजा बन
गया हूं- इस प्रकार उस राजा ने सोचा । पराधीनतया यात्रा कृता सम्मेदभूभृतः ।
ईदृक्फलं स्वतन्त्रेण कृता कीदृक्फला भवेत् ।।८८।। अन्वयार्थ - (मया = मेरे द्वारा). सम्मेदभूमृतः = सम्मेदशिखर पर्वत की.
यात्रा = यात्रा, पराधीनतया = दूसरे की अधीनता से, कृता = की गयी थी, (तस्याः = उस यात्रा का), ईदृक्फलं = ऐसा फल, (अस्ति = है), (तर्हि = तो). स्वतन्त्रेण = स्वतंत्र रूप से, कृता = की गयी, यात्रा - सम्मेदशिखर की वन्दना रूप यात्रा), कीदृक्फला = कितने या कैसे फल वाली, भवेत् =
होगी। श्लोकार्थ - मेरे द्वारा सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा विद्याधर के सहयोग
रूप पराधीनता को स्वीकार करके की गयी थी उसका इतना या ऐसा फल मिला है तब स्वतन्त्र रूप से अर्थात् अन्य किसी के सहयोग विना की गयी यात्रा का फल कितना और कैसा
होता होगा। इति संचिन्त्य हृदये स यात्रासम्मुखोऽभवत् । अष्टादशभिरक्षोणी मितान् जनवरान्नृपः ।।८६|| सार्धकान् च विधायासौ संघभक्तिसमन्विताः ।
पीसवस्त्रधरो धीमान् शैलयात्रां चकार हि ।।६०11 अन्वयार्थ - इति = इस प्रकार, हृदये = मन में, संचिन्त्य = विचारकर,
सः = वह राजा, यात्रासम्मुखः = सम्मेदशिखर की यात्रा करने के लिये सम्मुख अर्थात् तैयार, अभवत् = हो गया, संघभक्तिसमन्वितः = मुनिसंघ की भक्ति से पूर्ण होते हुये, असौ = उस, धीमान् = बुद्धिमान्, नृपः = राजा ने. पीतवस्त्रधरः = पीले वस्त्र धारण करते हुये, अष्टादशभिः = अठारह, अक्षोणी = अक्षोणी, मितान = प्रमाण, जनवरान = श्रेष्ठ अर्थात् भव्य मनुष्यों को, सार्धकान = साथ चलने वाला. विधाय = करके, शैलयात्रां = सम्मेद पर्वत की यात्रा को. चकार किया।