Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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अष्टदशः
५२१ सम्मेदशैलचर्चा = सम्मेदशिखर पर्वत की चर्चा को, चकार
= किया। श्लोकार्थ - कौसल पर्वत पर सुलोचन मुनिराज को देखकर और उन्हें
भक्ति सहित प्रणाम करके उस राजा ने उन मुनिराज के साथ सम्मेदशिखर नामक पर्वत की यथार्थ चर्चा की। यदा शिखरमाहात्म्यं श्रुतं मुनिमुखान्महत् ।
तदैवातिरूचिस्तस्य यात्रायै चाभवद् हृदि । 1६३ ।। अन्वयार्थ - यदा = जब. मुनिमुखात् = मुनिराज के मुख से, महत् =
अत्यधिक, शिखरमाहात्म्यं = सम्मेदशिखर की महिमा को, श्रुतं = सुना, तदा = तथ, एव = ही. तस्य = उस राजा के, हृदि = मन में, अतिरुचिः = अत्यधिक रुचि इच्छा, यात्रायै
= सम्मेदशिखर की यात्रा करने के लिये, अमवत् = हो गयी। श्लोकार्थ - जब मुनिराज के मुख से उसने सम्मेदशिखर के अतिशयपूर्ण
महत्व को सुना तब ही उसके मन में यात्रा करने के लिये,
अत्यधिक रूचि हो गयी। सत्वरं गृहमागत्य नत्वा सङ्घचतुष्टयम् ।
सार्धं सः बहुभिर्भय्यैः गिरियात्रां मुदा व्यधात् ।।६४।। अन्वयार्थ - सः = उसने, सत्वरं = शीघ्र. गृहं = घर, आगत्य = आकर,
सङ्घचतुष्टयं - चतुर्विध संघ को, नत्वा = नमस्कार करके, बहुभिः = अनेक. भव्यैः = भयो के, सार्ध = साथ, मुदा = प्रसन्नता से, गिरियात्रा = सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा को,
व्यधात् = किया। श्लोकार्थ - उसने शीघ्र ही घर आकर तथा चतुर्विध संघ को प्रणाम करके
अनेक भव्य राजाओं के साथ प्रसन्नता से सम्मेद शिखर पर्वत
की यात्रा को किया। यात्रा कृत्वा यचिन्तोऽसौ विरक्तः संसृतेधुवम् । एकोनशतकोट्युक्तैर्भव्यैः सह स भव्यराट् ।।६५।। दीक्षा गृहीत्या तत्रैव तपः कृत्या सुदारुणम् । निहत्य घातिकर्माणि विरागो गतकल्मषः ।।६६।।