Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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अथैकोनविंशोऽध्यायः अथातोऽहं बद्धपाणिन्दै श्रीमुनिसुव्रतम् ।
प्रसिद्धतामिह प्राप्तं त्रैलोक्ये यस्य सुव्रतम् ।।१।। अन्वयार्थ · अथ = अब, अतः = इससे आगे, अहं = मैं, बद्धपाणिः =
हाथ जोड़े हुये, श्रीमुनिसुव्रतं = श्रीमुनिसुव्रतनाथ को. वन्दे = प्रणाम करता हं यस्य = जिनका, सुव्रतं = सुव्रत, इह = इन, त्रैलोक्ये = तीनों लोकों में, प्रसिद्धतां = प्रसिद्धता
को, प्राप्तम् = प्राप्त हुआ. (अस्ति = है)। श्लोकार्थ - अब इससे आगे मैं कवि हाथ जोड़े हुये उन तीर्थङ्कर
मुनिसुव्रतनाथ को प्रणाम करता हूं जिनका सुव्रत इन तीनों लोकों में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। मुनिसुव्रतपादाब्जमपारभववारिधेः।
तरणाय सदा भाति महापोत इव ध्रुवम्।।२।। अन्वयार्थ - अपारभववारिधेः = अपार व सागर के तरणाय = तैरने के
लिये. सदा = हमेशा, मुनिसुव्रतपादाब्ज = मुनिसुव्रतनाथ के चरण कमल महापोत इव - नाव या जहाज के समान, धूवं
= निश्चित ही, भाति = सुशोभित होता है। श्लोकार्थ - अपार भव सागर को तैरने के लिये हमेशा ही मुनिसुव्रतनाथ
के चरण कमल नाव या जहाज के समान निश्चित ही
सुशोभित होते हैं। तत्कथां तस्य कूटस्य माहात्म्यमधुना बुधाः ।
वक्ष्ये श्रुणुत तद्भक्त्या यदि कल्याणकामिता ।।३।। अन्वयार्थ - अधुना = अब, तत्कथां = उन तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ की
कथा को, (च = और), तस्य = उस, कूटस्य = कूट के, माहात्म्यं = माहात्म्य को, वक्ष्ये = मैं कहता हूं. बुधाः = हे विद्वानो ! यदि = यदि, कल्याणकामिता = कल्याण करने की