Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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नासतिविसाधार जी महाराज
एकविंशतिः
ते - वे, यात्राफलभाजः = तीर्थवन्दना के फल मागी. स्युः = हों, (इति = यह), सत्यं सत्यं = सत्य ही, (अस्ति = है).
न संशयः = संशय नहीं है। श्लोकार्थ . चैत्र, भाद्रपद, कार्तिक और माघ्र नामक उत्तम मासों में से
किसी भी मास में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि में अनेकविध उत्सव से समन्वित गाव वाले जिन लोगों के द्वारा इस सम्मेदशिखर क्षेत्र पर तीर्थवंदना की गयी, करायी गयी और अनुमोदित भी की गयी वे सभी निश्चित ही यात्रा के फल
के भागी होवें यह सत्य है, इसमें संशय नहीं है। इदं सम्मेदभाहात्म्य लोहाचार्योक्तिसम्मतम् ।
निर्मितं हि देवदत्तेन कविना गुरुभाविना ।।५।। अन्वयार्थ - गुरूभाविना = गुरू भक्ति से पूर्ण व गुरू भावना के अनुसार
उसे पूरा करने वाले, कविना = कवि, देवदत्तेन = देवदत्त ने, हि = ही, लोहाचार्योक्तिसम्मतम् = लोहाचार्य के कथन - से सम्मत. इदं = यह, सम्मेदमाहात्म्यं = सम्मेदशिखरमाहात्म्य
नामक काव्य, निर्मितम् = निर्मित किया है। श्लोकार्थ - गुरुभक्ति से परिपूर्ण हृदय वाले एवं गुरू की भावना के
अनुसार उसे पूरा करने वाले कवि देवदत्त द्वारा ही लोहाचार्य के कथन से सम्मत यह सम्मेदशिखर माहात्म्य नामक काव्य रचा गया। यः श्रद्धया विधानेन पठेद्धा श्रुणुयादपि ।
सर्वकिल्विषनिर्मुक्त्तः स पुण्यं लभते क्षयम् ।।६।। अन्वयार्थ - यः = जो, अपि = भी, श्रद्धया : श्रद्धा से. विधानेन = विधान
से. पटेत् - पढ़े, वा -- अथवा, श्रुणुयात् = सुने, सः = वह. सर्वकिल्विषनिर्मुक्तः = सारे पापों से मुक्त हुआ, अक्षयं =
क्षयहीन, पुण्यं = पुण्य को, लभते = प्राप्त करता है। श्लोकार्थ - जो भी श्रद्धा भक्ति से तथा विधिपूर्वक इस माहात्म्य को पढ़े
अथवा सुने वह सारे पापों से मुक्त होकर अक्षय पुण्य को
प्राप्त करे। यायच्चन्द्रदियाकरौ गगनगौ यावत्स्वर्गाधीश्वरौ । यावद् भूमिरियं विराजिता तथा यावत्कृशानुर्मरुत् ।।