Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 616
________________ श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य शरीर को छोड़कर सिद्धदशा को प्राप्त हो गये। उसके बाद उनके पुत्र भावसेन नामक राजा जो धर्मात्मा था, ने भी चतुर्विध संघ की पूजा करके एवं एक करोड़ चौरासी लाख भव्य जीवों को साथ लेकर, सम्मेदशिखर पर्वत की यात्रा की। वहाँ पहुंचकर उसने उस सवर्णभद्र कट की पूजा करके उसे प्रणाम किया और कहे गरे श्रेष्ठ माने के सामालिनी दिगम्बर मुनि होकर तपश्चरण करने लगा। उन भावसेन मुनिराज ने शुक्लध्यान की सामर्थ्य से सारे कर्मों को पूर्णतः नष्ट करके उन मुनिराजों के साथ ही मुक्ति को प्राप्त कर लिया। एककूटनमस्कारादेतत्फलमुदीरितम्। सर्थकूटनमस्कारी मुक्तिं याति न संशयः । १६४|| अन्वयार्थ - एककूटनमस्कारात् = एक कूट को नमस्कार करने से, एतत् = यह, फलम् = फल, उदीरितम् = कहा गया है, (तर्हि = तो). सर्वकूटनमस्कारी = सारे कूटों की वंदना करने वाला, मुक्तिं = मोक्ष को, याति = जाता है, (इति = इसमें), संशयः = सन्देह, न = नहीं. (अस्ति = है)। श्लोकार्थ - जब एककूट को नमस्कार करने से यह और इतना फल बताया गया है तो सारे कूटों को नमस्कार करने वाला मोक्ष को जाता है इसमें संशय नहीं है। पशुत्वं नारकित्त्वञ्च नानादुःखफलप्रदम् । इह नास्त्येव नास्त्येव सम्मेदगिरिवन्दनात् ।।५।। अन्वयार्थ - सम्मेदगिरिवन्दनात् = सम्मेदशिखर पर्वत की वन्दना करने से. इह = इस संसार में, नानादुःखफलप्रदम् = नाना दुःख रूप फल को देने वाला, पशत्वं = पशुपना, च = और, नारकित्वं = नारकीपना, नास्ति एव = नहीं ही होता है। श्लोकार्थ - सम्मेदशिखर पर्वत की वन्दना करने से इस संसार में अनेकविध दुखों को देने वाला पशुपना व नारकीपना प्राप्त ही नहीं होता है।

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