Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्स. को, संवरं - संवर को, निर्जरा = निर्जरा को. च = और बन्धमोक्षी = बन्धमोक्ष को, ध्यात्वा = ध्याकर, तथा = और वेधा = दो प्रकार के. परिग्रहौ : परिग्रह को, त्यक्त्वा = छोड़कर, एकादशाहामृत - ग्यार.गों को मार करने वाले, अप्रमतगुणस्थानं = अप्रमत्तगुणस्थान को, प्राप्तः = प्राप्त हुये, अपूर्वकगुणस्थानमारूढः = अपूर्वकरण गुणस्थान में आरूढ़ हुये. शुचिमानसः = पवित्र मन वाले, अतिचारविवर्जितः = अति चार दोष से रहित, च = और, षोडशभावनाः = सोलह भावनाओं को, प्राप्त हुये, सः = उन मुनिराज ने, मुक्तये = मुक्ति के लिये, अमितोत्साहात् = अपरिमित उत्साह से, घोर
= कठिनतम. तपः = तपश्चरण को, कृतवान् = किया। श्लोकार्थ - जीव-अजीब, आम्रव, संवर, निर्जरा, बंधमोक्ष का ध्यान करके
और द्विविध परिग्रह को छोडकर, ग्यारह अगों को धारण करने वाले अप्रमत्त गुण स्थान को प्राप्त, अपूर्वकरण गुणस्थान में आरूढ़ हुये, पवित्र हृदय, अतिचार दोष से रहित और सोलह भावनाओं को प्राप्त हुये उन मुनिराज ने मुक्ति के लिये
अपरिमित उत्साह से कठोर तप किया। तीर्थकृन्नाम सुप्राप्य स संन्यासं ततः प्रभुः । संसाद्य विधिवदेहं त्यक्त्वायुषोन्ते ततः ।।१८।। तत्क्षणात्प्राणते स्वर्गे शक्रोऽभूत्स्वतपोबलात्।
विंशतिप्रोक्तवार्ध्यायुः तत्रोक्ताखिलभावधृक् ।।१६।। अन्वयार्थ - ततः - सोलह कारण भावनाओं के चिन्तवन से, सः = वह
प्रशुः -- मुनिराज, तीर्थकृन्नाम = तीर्थङ्कर नाम कर्म को सुप्राप्य = प्राप्त करके. विधिवत् = विधिपूर्वक, संन्यासं = संन्यासमरण को, संसाध = ग्रहण करके, आयुषः = आयु के अन्ते = अन्त में, देह = शरीर को, त्यक्त्वा = छोड़कर, तत = वहाँ से, तत्क्षणात् = तत्क्षण ही, प्राणते = प्राणत नामक स्वर्गे = स्वर्ग में, स्वतपोबलात् = अपने तपश्चरण के कारण से, विंशतिप्रोक्तवाायुः = बीस सागर आयु वाले