Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्य श्लोकार्थ - एक बार फाल्गुन सुदी तृतीया को शुम अभिजित नक्षत्र का
उदय होने पर रत्नखचित पलंग पर शुभ लक्षणों से लक्षित तथा सोयी हुई रानी मित्रसेना ने प्रातः बेला में उत्तम सोलह स्वप्नों को और अपने मुख में प्रविष्ट होते हुये हाथी को देखा। उसके बाद निद्रा छोड़कर जागी हुयी रानी हर्ष से राजा के पास गई । राजा के मुख से स्वप्नों का फल सुनकर रोमाञ्चित शरीर वाली उस रानी ने गर्भ में तीर्थङ्कर प्रभु को धारण किया । उस दिन से नौ महिने तक देवियों द्वारा जिसकी सेवा की गई ऐसी उस रानी ने सारे पुत्रों में सिरमौर अर्थात्
सर्वश्रेष्ठ सर्वोत्तम पुत्र को जन्म दिया। तदा देवेन्द्र आगत्य प्रेमविस्फारितेक्षणः । सकौतुकं सुरैः सार्धं समादाय प्रभुं मुदा ।।२८।। हेमाचलं जगामाथ पाण्डुकायां जगत्पतिम् । समारोप्य घटैर्दीधैर्देवानीतैः सुवेगतः ।।२६।। क्षीरोदसलिलपूर्णभिषकं जगद्गुराः ।
चकार विधियत्तत्र जयनिर्घोषमुच्चरन् ।।३०।। अन्वयार्थ -- तदा = तभी, प्रेमविस्फारितेक्षणः = प्रेम या विनय से खुले
हैं नेत्र जिसके ऐसा वह, देवेन्द्रः = इन्द्र ने, सुरैः = देवताओं के, साध = साथ, (तत्र = वहाँ), आगत्य = आकर. सकौतुकं = कौतुक सहित, प्रभुं = तीर्थकर शिशु को, समादाय = लेकर, मुदा = प्रसन्न मन से, हेमाचलं = सुमेरू पर्वत को, सुवेगतः = तेज गति से, जगाम = गया. अथ = इसके बाद, पाण्डुकायां = पाण्डुक शिला पर, जगत्पति = जगत् के स्वामी को, समारोप्य = विराजमान करके, देवानीतैः = देवों द्वारा लाये गये, क्षीरोदसलिलपूंर्णैः = क्षीरसागर के जल से भरे, दीर्घः = बड़े-बड़े, घटैः= कलशों से, तत्र = वहाँ. जयनिर्घोष - जय जयकार ध्वनि को, उच्चरन् = करते हुये, विधिवत् = विधिपूर्वक. जगद्गुरोः = तीर्थङ्कर शिशु का. अभिषेक
== अभिषेक, चकार = किया। श्लोकार्थ – तभी प्रेम या विनय से स्फारित नेत्र वाले इन्द्र ने देवताओं