Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
अष्टदश
५१३
प्रमोघ पितरौ बाल्ये थालकेलिभिरूत्तमैः । यौवनावेशसमये स्मरकोटिं बजत्यतः ।।३७।। रूपलावण्यजलधिः ज्ञानत्रयसमुज्ज्वलः ।
पैतृकं राज्यमापेदे प्रजाभ्यः सुखमर्पयत् ।।३८।। अन्वयार्थ - बाल्ये = बाल्यकाल में, उत्तमैः = उत्तम, बालकेलिभिः =
बालक्रीड़ाओं से, पितरौ = माता-पिता को, प्रमोद्य = प्रसन्न करके, यौवनावेशसमये = यौवन से आवेशित होने के या यौवन का प्रवेश होने के काल में, स्मरकोटिं = कामदेव की कोटि को, ब्रजति = प्राप्त कर लिया, अतः = इसके बाद, रूपलावण्यजलाधः = रूप सौन्दर्य व लावण्य के सागर, ज्ञानत्रयसमुज्ज्वलः = तीन ज्ञान से सुशोभित, (सः = उन प्रभु ने), पैतृक = पिता के, राज्यं = राज्य को, आपेदे = प्राप्त कर लिया. (च = और), प्रजाभ्यः - प्रजा के लिये, सुखं =
सुख, अर्पयर - अर्पित कर दिया। श्लोकार्थ - बाल्यकाल में उत्तम बालक्रीड़ाओं से उन्होंने माता पिता को
प्रसन्न करके यौवन में प्रवेश करते समय कामदेव की कोटि को प्राप्त कर लिया। इसके बाद रूपलावण्य के सागर और तीन ज्ञान से सुशोभित जन प्रभु ने पैतृक राज्य प्राप्त किया और प्रजा के लिये सुख प्रदान किया । अविवाहित एवासौ कदाचित्सौधगः प्रभुः ।
मोक्षबीजं तपश्चित्ते चिन्तयत्कर्मदाहकम् ।।३६ ।। अन्वयार्थ • कदाचित् = किसी समय, अविवाहितः = अविवाहित, एव =
ही, असौ = उन. सौधन: = महल में बैठे हुये, प्रभुः = राजा मल्लिनाथ ने, चित्ते = मन में, कर्मदाहकं = कर्म को जलाने वाले, (च :- और), मोक्षबीजं = मोक्ष के बीज स्वरूप, तपः
= तप का, अचिन्त्यत् = विचार किया। श्लोकार्थ - किसी समय अपने महल में बैठे अविवाहित ही उन प्रभु ने
अपने मन में कर्मों को जलाने वाले व मोक्ष के बीज स्वरूप तप का विस्तार किया।