Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = जानें, तद्विषये = उस फल के विषय में, मे = मुझ, अल्पमेधसा = अल्प बुद्धि वाले द्वारा, कथं = कैसे, वक्तुं -
कहना, शक्यम् = शक्य, (आस्ते = है)। श्लोकार्थ – इस पृथ्वी पर छियानवे करोड प्रोषधोपवास का जितना फल
हो इतना ही फल उस एक नाटक कूट को नमस्कार करने का भी होवे ! सारी कूटों की वन्दना करने वाले के फल को जिनेन्द्र भगवान ही जाने मुझ अल्बुद्धि के द्वारा उसे कह पाना कैसे शक्य अर्थात् संभव है। अरनाथो केवलं प्राप्य यस्मात्सिद्धं
स्थान प्राप तेजः समुद्रः । भव्य वैर्वन्दनीयं समन्तात् वन्दे
भक्त्या कूटकं नाटकाख्यम् ।।८।। अन्वयार्थ - केवलं = केवलज्ञान को, प्राप्य = प्राप्त करके, लेजः समुद्रः
-- तेज के सागर स्वरूप, अरनाथः = तीर्थकर अरनाथ ने, यस्मात = जिस कर से. सिद्धं - सिद्ध, स्थानं = स्थान को, प्राप = प्राप्त किया, भव्यैः = भव्य, जीवैः = जीवों के द्वारा, वन्दनीयं = प्रणाम करने योग्य, नाटकाख्यं = नाटक नामक, कूटकं : कूट को, गक्त्या = भक्ति से, समन्तात् = हर दृष्टि
से, वन्दे - प्रणाम करता हूं। श्लोकार्थ – केवलज्ञान प्राप्त करके तेजपुञ्ज तीर्थङ्कर अरनाथ ने जिस
कूट से सिद्ध पद को प्राप्त किया तथा जो सदैव भव्य जीवों द्वारा चन्दनीय है उस कूट को मैं हर दृष्टि से भक्ति सहित
प्रणाम करता हूं। (इति दीक्षितब्रह्मनेमिदत्त विरचिते सम्मेदशैलमाहात्म्ये तीर्थकरारनाथवृत्तान्तपुरस्सरं नाटककूटवर्णनं नाम
सप्तदशमोऽध्यायः समाप्तः।) इस प्रकार दीक्षित ब्रह्मनेमिंदत्त द्वारा रचित सम्मेद शैल माहात्य
काव्य में तीर्थङ्कर अरनाथ का वृतान्त उजागर करता हुआ नाटककूट का वर्णन करने वाला सत्रहवां अध्याय समाप्त हुआ।}