Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तदशः
प्रकार), वाञ्छितदानतः = चाहे गये दान से, दीनानां = दीन याचकों के, दुःखं = दुःख को. दूरीकृत्य = दूर करके, सर्वसद्गुणसम्पन्न - सारे सद्गुणों से युक्त हुआ, सः = वह राजा भितिमण्डले - पथली तर राज = सुशोभित हुआ। एकदा = एक दिन, स्वात्मानं = अपने आपको, सज्जीकृत्य = सुसज्जित करके, सिंहासनगतः = सिंहासन पर बैठा हुआ, नृपः = राजा, सभामध्ये = सभा में. अपरः = दूसरे. भानुः इव = सूर्य के समान, बभौ = सुशोभित हुआ। अथ = तत्पश्चात्, वनपालः = एक वनपाल ने, अभ्येत्य = आकर, नपस्य = राजा के, पुरतः = सामने, दिडमखं - सभी दिशाओं के कुछ भाग को. च = सचमुच, सुरभीकृतं = सुगन्धित कर देने वाले, वरं = सुन्दर प्रसूननिचयं = फूलों के समूह को. (क्षिप्तवान् = रख दिया), तदा = एवं, हर्षिताननः = ग्रसन्नमुख, महीपतिः = राजा ने, कौतुकेन - कौतुक से, ततः = उस पुष्प के पिटारे से, एक - एक, कुसुम = फूल को, आदाय = लेकर, करस्थं = हाथ में स्थित, उस पुष्प को, वेगेन = गति से वेगपूर्वक, भ्रामयामास = घुमा दिया. तस्मात् = घुमाने पर उस फूल से, मृतः = मरा हुआ, भ्रमरः - एक भीरा, सभाभुवि = सभा की भूमि पर, एव = ही, प्रपात
= गिर पड़ा। श्लोकार्थ - उस राजा की विजया नाम की रानी थी जो चार प्रकार के
दान देने में तत्पर रहती थी। उस रानी के साथ भोगों को भोगता हुआ वह धर्मात्मा राजा सोच समझकर प्रतिदिन बहुत दान देता था। इस प्रकार याचकों के लिये उनके इच्छित दान देने से दीनों के दुःख दूर करके तथा सभी सद्गुणों से युक्त वह राजा पृथ्वी मण्डल पर सुशोभित होने लगा। एक दिन अपने आपको अलङ्कृत करके सिंहासन पर बैठा हुआ राजा सभा में द्वितीय सूर्य के समान सुशोभित हो रहा था। इसी समय एक वनपाल ने वहाँ आकर राजा के सामने सभी दिशाओं के हिस्सों को सुगन्धित कर देने वाली एक