Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री समोदशिखर माहात्मा से कहा -- हे राजन! यह पात्र इन्द्र ने तुम्हारे लिये गेजा है। यह पात्र चौदह रत्नों और नव निधियों का खजाना है स्वर्ण को उत्पन्न करने वाला है अतः हे महीपते! तुम इसे ग्रहण करो। इति श्रुत्वा देववाक्यं भावदत्तस्तमब्रवीत् ।
मत्कार्यस्य किमेतेन तदन्यस्मै दीयताम् ।।६५।। अन्वयार्थ - इति = इस प्रकार. देववाक्यं = देव के वाक्यों को, श्रुत्वा
- सुनकर, भावदत्तः = भावदत्त राजा ने, तम् = उस देव को, अब्रवीत् = कहा, मत्कार्यस्य = मेरै कार्य के लिये, एतेन = इससे, किम = क्या प्रयोजन, अन्यस्मै = अन्य राजा के
लिये, तत् = वह पात्र, दीयताम = दे दो। श्लोकार्थ - इस प्रकार देव वचन को सुनकर वह भावदत्त राजा देव से
बोला- इस पात्र से मेरे कार्य का क्या प्रयोजन तुम इसे किसी
अन्य राजा को दे दो। निर्बन्धो बहुधा तेन कृतो देवेन तं प्रति ।
अङ्गीचकार नैवासौ पात्रं तल्लोकदुर्लभम् ।।६६ ।। अन्वयार्थ - तं प्रति - उस पात्र को ग्रहण करने के बारे में, तेन = उस,
देवेन= देव द्वारा. बहुधा - अनेक प्रकार से. निर्बन्धः = आग्रह, कृतः = किया, असौ = उस राजा ने, लोकदुर्लभम् = लोक में कठिनता से प्राप्त, तत = वह पात्रं = पात्र, नैव = नहीं
ही. अङ्गीचकार = ग्रहण किया। श्लोकार्थ - उस पात्र को ग्रहण करने के प्रति उस देव ने राजा से बहुत
प्रकार से आग्रह किया तथापि उस राजा ने वह लोकदुर्लभ पात्र स्वीकार नहीं किया। परीक्ष्य तस्य सद्भाव भूपतेराह सोऽमरः ।
धन्यस्त्वं भूमिगो राजन्नेदृशी यदकामना ।।६७।। अन्वयार्थ - सः = उस, अमर; = देव ने, तस्य = उस. भूपतेः = राजा
के, सद्भाव = सद्भाव की, परीक्ष्य = परीक्षा करके. आह