Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्दशः
तत्कूटवन्दनाद् भक्त्या मानवस्य महीतले।
अनायासाद् भवेदेव कोटिप्रोषधजं फलम् ।।६।। अन्वयार्थ- महीतले = पृथ्वी पर, भक्त्या = भक्ति से. तत्कूटवन्दनात् =
उस कूट की वन्दना करने से, मानरस्य = मनुष्य के लिये, कोटिप्रोषधजं = एक करोड़ प्रोषधोपवास से जनित, फलं =
फल, अनायासाद् = बिना प्रयास से, एव = ही, भवेत् = होवे। श्लोकार्थ- पृथ्वी पर भक्ति भाव से उस कूट की वन्दना करने से एक
करोड़ प्रोषधोपवास से उत्पन्न होने वाले फल की प्राप्ति
मनुष्य के लिये अनायास ही हो जावे। श्रीधर्मनाथः किल धर्मभूपा धर्मापदिष्टाखिलधर्मधारी।
यस्माद् गतो मुक्तिपदं तमेव कूटं गिरेंर्दत्तवरं नमामि ।।६७ ।। अन्ययार्थ- यस्मात् = जिस कूट से, किल = वस्तुतः, धर्मभूपः = धर्म
के राजा, धर्मोपदिष्टा = धर्म का ही उपदेश देने वाले, अखिलधर्मधारी = सम्पूर्ण धर्म को धारण करने वाले, श्रीधर्मनाथः = श्री धर्मनाथ तीर्थङ्कर, मुक्तिपदं = मोक्षस्थान को, गतः = गये, तं = उस, गिरेः = पर्वत की, दत्तवरं = दत्तवर नामक, कूटं = कूट को, एव = ही, नमामि = मैं
नमस्कार करता हूं। श्लोकार्थ- जिस कूट से सचमुच में धर्म के ही राजा, धर्म का ही उपदेश
देने वाले, सर्वधर्म के धारी तीर्थङ्कर धर्मनाथ मोक्ष को गये मैं सम्मेदशिखर पर्वत की उसी दत्तवर कूट को ही नमस्कार
करता हूं। {इति दीक्षितब्रह्मनेमिदत्तविरचिते श्रीसम्मेदशैलमाहात्म्ये तीर्थङ्करधर्मनाथवृतान्तसमन्वितं दत्तवरकूटवर्णन
नाम चतुर्दशमोऽध्यायः समाप्तः।) इस प्रकार दीक्षित ब्रह्मनेमिदत्त द्वारा रचित श्री सम्मेदशैल माहात्म्य नामक काव्य में तीर्थङ्कर धर्मनाथ के वृतान्त से पूर्ण दत्तवर कूट
का वर्णन करने वाला यह चौदहवां अध्याय समाप्त हुआ।}