Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षष्ठदशः
तत्सुखं
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सर्वार्थसिद्धावभवदहमिन्द्रः त्रयस्त्रिंशत्सागरायुः अन्वयार्थ - एकदा एक दिन त्रुद्यत्तारां टूटते हुये तारा को दृष्ट्वा देखकर, विरक्ततां विरक्तता को प्राप्य प्राप्त करके. पुत्राय = पुत्र के लिये, राज्यं राज्य समर्प्य देकर, बहुभिः = बहुत, भूमिपैः राजाओं के सह- साथ, दीक्षां दीक्षा को. गृहीत्वा = ग्रहण करके, ततः = और उसके बाद, एकादश = ग्यारह, अङ्गानि = अगों को, संधार्य = धारण करके चतुर्दश चौदह, पूर्वान् = पूर्वी को, अधीत्य = जानकर, च = और, भावनाः = भावनाओं को भावयित्वा भाकर, तीर्थकृत् तीर्थङ्कर नामक गोश्रं उत्कृष्ट पुण्य को, बद्ध्वा = बांधकर बने = वन में, महत - महान्, तपः = तपश्वरण को, तात्वा तप कर, आयुषः आशु के. अन्तेन = अन्त होने के कारण, संन्यासेन = संन्यास मरण द्वारा. तनुं = शरीर को त्याचा = छोड़कर, = सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्रः = अहमिन्द, अभवत हुआ, (तत्र वहाँ), सुरार्चिसः देवताओं द्वारा पूजित, (च और). त्र्यत्रिंशत्सागरायुः = तेतीस सागर आयु वाले, (असौ - उत्स दंव ने), तत्सुखं = सर्वार्थसिद्धि में प्राप्त देवोचित सुख को, रमन्चभूत् भोगा अर्थात् उस सुख का अनुभव किया। श्लोकार्थ एक दिन टूटते हुये तारे को देखकर विरक्त्त होकर एवं पुत्र
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बल सर्वार्थसिद्धौ
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सुरार्चितः । सममन्यभूत् ।।६।।
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के लिये राज्य दंकर बहुत सारे राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण करके, ग्यारह अंगों को धारण करके चौदह पूर्वो को पड़कर उनका अध्ययन करके और भावनाओं को गाकर तीर्थकर नामक पुण्य को बांधकर वन में महान तपश्चरण करके आयु के अन्त में संन्यास मरण से शरीर को छोडकर वह सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ देवताओं से पूजित होते हुये और तेतीस सागर आयु वाले उस देव ने उस सर्वार्थसिद्धि के सभी सुखों को अनुभव किया ।