Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षष्टदशः
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अन्वयार्थ - तदा एव = उस ही समय, गृहम् = घर, आगत्य - आकर,
सः -- उसने, सम्मेदधरणीभृतः = सम्मेदपर्वत की. यात्रोद्योगं = यात्रा का उद्योग प्रयत्न, चकार = किया, (प्रथमं = पहिले). असौ : उसने, मेरीध्वानं = भेरी ताड़न अर्थात् नगाड़े की
शब्द ध्वनि पूर्व सूचना, अकारयत् = करा दी।। श्लोकार्थ – उस ही समय घर आकर उस राजा ने सम्मेद शिखर की
यात्रा का प्रयत्न किया। सबसे पहिले उसने नगाड़ों से ध्वनि
पूर्वक सूचना करवायी। हस्त्यश्वस्थपतीश्च सम्भूष्य बहुधा नृपः । सधं चतुर्विधं तत्र पूजयन्नमृताम्थुधिः ।।३।। ततः सुखेन मार्गेऽसौ बसन् कतिपयैदिनैः ।
प्राप सम्मेदशैलेन्द्रं भय्यजीवनमस्कृतम् ।।६४ ।। अन्वयार्थ - हस्त्यश्वरथपत्तींश्च = हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों
को, बहधा = बहत प्रकार से, संभष्य - सजाकर, तत्र = वहाँ, चतुर्विधं = चार प्रकार के, सधं -- ८ को जाना = पूजते हुये, असौ = वह, अमृताम्बुधिः = अमृतत्व के सागर स्वरूप अनादि निधन आत्मा को मानने वाला, नृपः = राजा. मार्गे = मार्ग में, सुखेन = सुख से, बसन् = बसता हुआ अर्थात् रुकता हुआ, कतिपयैः = कुछ ही. दिनैः = दिनों से, भव्यजीवनमस्कृतं = भव्यजीवों द्वारा नमस्कार किये गये.
सम्मेदशैलेन्द्रं = सम्मेदशिखर पर्वत को, प्राप = प्राप्त किया। श्लोकार्थ - हाथी, घोड़ों. रथों और पदातियों की सेना को अनेक प्रकार
सुसज्जित करके और वहीं चतुर्विध अर्थात् मुनि, आर्यिका. श्रावक एवं श्राविका संघों की विधिवत् पूजा करते हुये अमरत्व से पूर्ण आत्मा की श्रद्धा में सागर जैसा गंभीर वह राजा मार्ग में बसता-रुकता हुआ कुछ ही दिनों में सुखपूर्वक भव्यजीवों
से नमस्कार किये गये सम्मेदाचल पर्वत पर पहुँच गया। तत्र ज्ञानधरं कूटमभिवन्द्य समर्थ्य च। एकार्बुदचतुर्युक्ताऽशीतिकोटिप्रमाणितैः ।।६५ ।।