Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पञ्चदशः
अन्वयार्थ
श्लोकार्थ
A
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४४६
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अथ - अब यात्रां = सम्मेदगिरि की यात्रा को, कृत्वा = करके, विरक्तः = विरक्त हुये, अयं इस राजा ने, पावनीं = पावन, दीक्षां = दीक्षा को धृत्वा = धारण करके, एक कोटिचतुर्युक्ताऽशीतिलक्षमुनीश्वरैः = एक करोड़ चौरासी लाख मुनिराजों के साथ, केवलज्ञानं केवलज्ञान को, आसाद्य = प्राप्त करके, अथ = और, प्रभासाख्यं = प्रभास नामक कूटं = ए को अभिचल करके, अनघ कर्मरहित, शुक्लध्यानधरः शुक्लध्यान को धारण किये हुये सिद्धतां सिद्धता को, सम्प्राप प्राप्त कर लिया । सम्मेदशिखर की यात्रा करके विरक्त हुये इस राजा ने पवित्र मुनि दीक्षा को धारण करके एक करोड़ चौरासी लाख मुनिराजों के साथ केवलज्ञान प्राप्त करके और प्रभासकूट को प्रणाम करके सिद्ध पद प्राप्त कर लिया ।
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एककूटस्य मुनिना फलमीदृक् प्रकाशितम् । तद्वन्दको न नरकं न पशुत्वं क्वचिल्लभेत् । ।७१।। अन्वयार्थ मुनिना = भुनि द्वारा एककूटस्य एक कूट का, ईदृक् ऐसा, फलं = फल प्रकाशितम् = प्रकाशित किया है, तद्वन्दको = उस कूट की वन्दना करने वाला, क्वचित् कभी भी, नरकं नरक को, न = नहीं, लभेत् = प्राप्त करे, पशुत्वं - पशुत्व को, (अपि = भी), न = नहीं. लभेत् = प्राप्त करे |
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श्रीशान्तिनाथेन विधाय वासं,
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श्लोकार्थ मुनिराज द्वारा एक कोटि का इतना और ऐसा फल प्रकाशित किया है कि उस कूट की वन्दना करने वाला कभी भी नरक और पशुपना प्राप्त नहीं करे |
यस्मिंश्च मासावधियोगसिद्धैः ।
सिद्धालयो लब्ध उदारबुद्धया
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प्रभासकूटं शिरसा नमामि ।।७२।।