Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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अथ चतुर्दशमोऽध्यायः धर्मान्दशविधानोन भव्यानां पुणाकाला।
उपादिशत्तमीशानं धर्मनाथं सदा नुमः ।।१।। अन्वयार्थ - यः = जिन्होंने, अत्र = यहाँ, पुण्यकर्मणां = पुण्य करने वाले,
भव्यानां = भव्य जीवों के, (कृते = लिये). दशविधान् = दश प्रकार के, धर्मान् = धर्मों को, उपादिशत् = उपदेश रूप से कहा, तम् = उन, ईशानं = तीर्थङ्कर, धर्मनाथ = धर्मनाथ
को. सदा = हमेशा, नुमः = हम नमस्कार करते हैं। श्लोकार्थ - जिन्होंने यहाँ पुण्यात्मा भव्य जीवों के लिये दश प्रकार के
धर्मों का उपदेश दिया उन तीर्थङ्कर प्रभु धर्मनाथ को हम
सब प्रणाम करते हैं। यो वै दत्तवरात्कूटातधर्माधर्मों विभज्य च ।
शुक्लध्यानात् गतो मोक्षं वक्ष्ये तच्चरितं शुभम् ।।२।। अन्वयार्थ - यः = जो, दत्तवरात् = दत्तवर नामक, कूटात् = कूट से,
धर्माधर्मों = धर्म और अधर्म को, विभज्य = अलग करके, शुक्लध्यानात् = शुक्ल ध्यान से, मोक्षं - मोक्ष को, गतः = गये, तच्चरितं = उनके चरित को, वै = निश्चित ही. शुभं
= शुभ, वक्ष्ये = मैं कहता हूं। श्लोकार्थ - जो धर्म और अधर्म का भेद करके या धर्म को अधर्म से अलग
बताकर दत्तवर कूट से शुक्लध्यान के वश से मोक्ष चले गये
उनके निश्चित ही शुभ चरित को मैं कहता हूं। धातकीनामसद्वीपे विदेहे पूर्व उत्तमे । सीतादक्षिणभागेऽस्ति यत्सदेशः शुभालयः ||३|| सुसीमानगरं तत्रा राजा दशरथो महान्। प्रतापवान् मित्रागणाहलादकपूर्णचन्द्रमाः।।४।।