Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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तृतीया
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श्लोकार्थ शुक्ललेश्या से सम्पन्न वह अहमिन्द्र तेवीस हजार वर्षों के बीत जाने के बाद उत्तम अमृत आहार मात्र मन से अर्थात् मनोगत इच्छा से ही ग्रहण करता था।
त्रयोविंशत्सु पक्षेषु व्यतीतेषु च देवराट् । ब्रह्मचर्यभोगमनुत्तमम् ||१०||
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श्वासोच्छ्वासधरो अन्वयार्थ च और देवराट् उस अहमिन्द्र देव ने त्रयोविंशत्सु : तेवीस, पक्षेषु पक्ष, व्यतीतेषु बीतने पर श्वासोच्छ्वासधरः = श्वासोच्छ्यास धारण करने वाला, (भूत्वा = होकर). अनूत्तमम् = उत्कृष्ट, ब्रह्मचर्यभोगं = ब्रह्मचर्य के आनंद को, ( लब्धवान् प्राप्त किया) ।
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श्लोकार्थ तथा उस देवराज अहमिन्द्र ने तेवीस पक्षों के बीतने पर श्वासोच्छ्वास को धारण करने वाला होकर अत्युत्तम ब्रह्मचर्य के आनन्द को प्राप्त किया ।
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अन्ययार्थ - अथ = अनन्तर (सः = वह अहमिन्द्र), सातनरकपर्यन्ताधिबोधदृक् सातवें नरक तक की मर्यादा वाले अवधिज्ञान से जानने-देखने वाला, (च = और), तावत्प्रमाणविकृतिः = उतने ही प्रमाण में विक्रिया सामर्थ्य वाला, तेजोबल पराक्रमः = तेजस्वी, बलवान् और पराक्रमी, (अभूत् = हुआ ) ।
श्लोकार्थ तथा वह देव सातवे नरक तक की मर्यादा वाले अवधिज्ञान
से सम्पन्न हुआ, वैसी ही अर्थात् अवधिज्ञान के समान ही उनके प्रमाण में विक्रिया सामर्थ्य वाला, तेजस्वी, बलशाली और पराक्रमी भी हुआ ।
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अथाभूत्सप्त नरकपर्यन्तावधिबोधदृक् । तावत्प्रमाणविकृतिस्तेजोबल पराक्रमः । 9911
अणिमाद्यष्टसिद्धीनामीश्वरोऽयं
अहमिन्दसुखास्वादी सर्वायुष्ये ऽवशिष्टेषु षट्सु पुनर्भूम्यवताराय
तपोनिधिः । तत्रातिष्ठत्तपोबलात् ||१२|| मासेषु तत्र वै । समयोऽन्तिकमागतः ||१३||