Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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७१ छप्पन, वासरान् = वर्षों को, नीत्वा = बिताकर, उच्छवासविधानं
= श्वासोच्छवास को, कृतवान् = करता था। श्लोकार्थ - ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ वह सामर्थ्यशाली देव चार
सौ छप्पन वर्ष बीतने पर सांस लेता था। तत्र स्वायधिपर्यन्तं ज्ञानतेजःपराक्रमैः । विक्रियाभिः समर्थोऽयं यं कर्तु हृदीप्सितम् ||१६ ।। तथापि किञ्चिदपि नो कर्तुमिच्छति तत्र स प्रभुः ।
अपारसुखसम्पन्नो व्यराजत स्वविभूतिभिः ।।२०।। अन्वयार्थ – तत्र = उस प्रीतिकर विमान में, अयं = यह अहमिन्द्र देव,
स्वावधिपर्यन्तं = अपने अवधिज्ञान की सीमा तक, ज्ञानतेजःपराक्रमैः = ज्ञान, तेज और पराक्रम से, विक्रियाभिः = विक्रियाओं से, हदि = मन में, ईप्सितम् = इच्छित, सर्व - सब कुछ. कर्तुं = करने के लिये समर्थः = सामर्थ्यवान्, (आसीत् = था), तथापि = फिर भो, सः = वह, प्रभुः = समर्थ देव, किञ्चिद् = कुछ, अपि = भी, कर्तु = करने के लिये, नो = नहीं, इच्छति = चाहता था, स्वविभूतिभिः = अपार सुख
से सम्पन्न होता हुआ, व्यराजत = सुशोभित हुआ। श्लोकार्थ – ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में यह अहमिन्द्र देव अपने
अवधिज्ञान की सीमा के भीतर ज्ञान, तेज, पराक्रम और विक्रियाओं से मनोभिलषित सब कुछ करने में समर्थ था फिर भी उस देव ने कुछ भी करने की इच्छा नहीं की वह तो केवल अपने पुण्योदय से प्राप्त वैभव द्वारा ही अपार सुख से सम्पन्न होकर सुशोभित हुआ। ध्यात्वा सिद्धानशेषांश्च तत्पूजारतमानसः ।
षण्मासप्रमितायुः हि सर्यायुषि बभूय सः ।।२१।। अन्वयार्थ - सर्वायुषि = अहमिन्द्र की सारी आयु में, षण्मासप्रमितायुः =
छह माह प्रमाण आयु वाला, सः = वह देव, अशेषान् = सारे, सिद्धान् = सिद्धों को, ध्यात्वा = ध्याकर, च = और, हि = निश्चित ही, तत्पूजारतमानसः = उनकी पूजा में अपने मन को लगाने वाला, बभूव = हुआ।