Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य अनों का ज्ञाता होकर, ५ का पालन कर एवं सोलह कारण भावनाओं को भाकर, तीर्थङ्कर नामक उच्च पुण्य को प्राप्त करके आयु के अन्त समय में संन्यासमरण से देह छोड़कर
सोलहवें स्वर्ग में चला गया। तत्र पुष्योत्तराख्ये स विमाने स्वतपोबलात् ।
सम्प्राप्य चाहमिन्द्रत्वं रेजे शारदचन्द्रवत् ।।११।। अन्वयार्थ – च = और, तत्र - वहाँ, सः = वह, पुष्योत्तराख्ये = पुष्योत्तर
नामक, विमाने = विमान में, स्वतपोबलात = अपने तप बल से. अहमिन्द्रत्वं = अहमिन्द्रपने को, सम्प्राप्य = प्राप्त करके, शारदचन्द्रवत - शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान. रेजे =
सुशोभित हुआ। श्लोकार्थ सोलहवें स्वर्ग में वह देव अपने तपोबल से पुष्योत्तर नामक
विमान में अहमिन्द्र पने को पाकर शरद ऋतु के चन्द्रमा के
समान सुशोभित हुआ। द्वाविंशतिसमुदायुः शुक्ललेश्यालसत्तनुः । त्रिहस्तप्रमितोत्सेधो बभूवाद्भुतदर्शनः ।।१२।। गतेष्वब्देषु तत्रासौ द्वाविंशतिसहस्रकैः । मितेषु मानसाहारमग्रहीत्सुखसंप्लुतः।।१३।। तथा गतेषु पक्षेषु द्वाविंशतिमितेषु सः ।
श्वासोच्छ्यासधरः श्रीमान् सर्वकार्यक्षमोऽभवत् ।।१४।। अन्वयार्थ – (सः = वह देव), अद्भुतदर्शनः = अद्भुत सौन्दर्य के कारण
दर्शनीय, शुक्ललेश्यालसत्तनुः = शुक्ललेश्या से सुशोभित शरीर वाला, द्वाविंशतिसमुद्रायुः = बावीस सागर प्रमाण आयु वाला, त्रिहस्तप्रमितोत्सेधः = तीन हाथ प्रमाण ऊँची देह वाला, बभूव = हुआ। तत्र = वहाँ स्वर्ग में, सुखसंप्लुतः = सुख में मग्न. असौ : वह देव, द्वाविंशतिसहस्रकैः = बावीस हजार, नितेषु = परिमित, अब्देषु = वर्षों के, गतेषु = बीत जाने पर, मानसाहारं = मानसिक अमृत आहार को, अग्रहीत् = ग्रहण करता था।