Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
३३८.
श्लोकार्थ – सुप्रसिद्ध धातकीखण्ड द्वीप में कान्तिपूर्ण पश्चिम मेरू पर्वत पर उत्तम और सुन्दर पश्चिम विदह क्षेत्र है जहाँ पवित्र जल से पूर्ण सीतोदा नदी है उस नदी के दक्षिण में अत्यधिक रमणीय एक नगर है उस महानगर नामक नगर में पद्मसेन राजा रहता था वह राजा भिक्षुओं के लिये देवदारू कल्पवृक्ष के समान था उसने अपने पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों के कारण अपने कण्टकविहीन राज्य का पालन अपनी रानी के साथ वैसे ही किया जैसे इन्द्र अपने राज्य का पालन करता है। एकस्मिन्समये पीताम्बरं धृत्वा वने शुभे । बहुभिर्मुनिभिस्सार्धं पद्सेनः समाययौ ।।६।। श्रुत्वा तं मुनिशार्दूलं समायातं महाप्रभुं । तद्वन्दनार्थं भूपालः प्रत्यगात्स जनैः समम् ||६||| अन्वयार्थ एकस्मिन् एक समये - एक समये समय में, पदमसेनः = पद्मसेन राजा, पीताम्बरं पीले वस्त्र को, धृत्वा = धारण कर, शुभे = सुन्दर, वने = धन में, समायय = गया, बहुभिः = अनेक, मुनिभिः = मुनियों के सार्धं साथ, मुनिशार्दूलं - मुनि श्रेष्ठ, उन, महाप्रभु = महाप्रभु को समागतं आया हुआ, श्रुत्वा सुनकर, तद्वन्दनार्थं उनकी वन्दना करने के लिये, लोगों के समं साथ,
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तं
= राजा, जनैः
स = वह, भूपालः प्रत्यगात् = गया।
श्लोकार्थ एक समय राजा पदमसेन पीले वस्त्र पहिनकर एक सुन्दर वन में गया। उस वन में मुनिश्रेष्ठ महप्रभु को आया हुआ सुनकर उनकी वन्दना करने के लिये वह लोगों के साथ वहां
गया।
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तत्र गत्वा भिवन्द्यैनं चतुर्वर्गां कथां शुभाम् धर्मार्थकाममोक्षाप्तिप्रयत्नवरगर्भिताम् ।।१०।।
श्रुत्वैषः सत्सकाद्धि भवनिर्विण्णमानसः 1 जैन दीक्षां समुत्सह राज्ये पुत्रं नियोज्य च ।।११11 धृत्यैकादश
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अगृहीच्छ्रद्धयाङ्गानि
धैर्यवान् । भावनाः । । १२ ।।
अखिला : जैनशास्त्रोक्ताः भावयामास