Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
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त्वं
में, त्वया = तुम्हारे द्वारा, पुण्यं = पुण्य कार्य, न नहीं, कृतम् किया गया, ततः = उसी पुण्य नहीं करने रूप कारण से. = तुम, दरिद्रतां = गरीबी को प्राप्तः प्राप्त हुये हो, च = और, पुण्यात् = पुण्य से, एव ही, शर्मता = सुख या सौख्य, ( प्राप्यते = प्राप्त किया जाता है) । श्लोकार्थ मुनिराज ने कहा- तुम्हारे द्वारा अन्य पर्याय अर्थात् पिछले पुण्य नहीं किया गया उस कारण से ही तुम यहाँ दरिद्रता को प्राप्त हो गये हो। निश्चित ही यह जान लो कि सुख पुण्य से ही मिलता है।
भव में
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पुनः सः तं मुनिं प्राह यतो मे दुःखसञ्चयः | नश्येर्तयं समाख्याहि यदि भय्यस्ति ते कृपा ।।६७ ।। अन्वयार्थ सः = वह समुद्रदत्त, पुनः फिर से, तं = उन मुनिं मुनिराज से प्राह बोला, यतः = जिस कारण से, मे मेरे दुःखसञ्चयः = दुःखों का संचय, (अभूत् = हुआ), तत् = वह कारण, नश्येत् = नष्ट हो, (इति = ऐसा ), त्वं = आप, समाख्याहि = अच्छी तरह से कहो, यदि यदि ते तुम्हारी, कृपा = कृपा-दया, मयि मुझ पर, अस्ति है । श्लोकार्थ वह समुद्रदत्त फिर से उन मुनिराज से बोला- यदि तुम्हारी
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मुझ पर कृपा है तो आप उस को अच्छी तरह से बताइये जिससे मेरे यह दुःखों का संचय हुआ तथा वह कैसे नष्ट होवेगा यह भी बताइये।
शुचार्दितम् ||६८ ||
तदोवाच मुनीशस्तं विवेकरहितं जडम् । तपोव्रतजपान्कर्तुमसमर्थ सम्मेदशैलराजस्य यात्रां दारिद्र्यनाशिनीम् । धृत्वा पीताम्बराण्यङ्गे कुरू त्यमविचारयन् ।।६६ ॥ दारिद्र्यं न तवागारे स्थास्यत्यत्र न संशयः । इति श्रुत्वा तदैवासौ गतः पुण्याद्धि पर्वतम् । ।७० ।।
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अन्वयार्थ तदा तब मुनीशः मुनिराज ने विवेकरहितं विवेकहीन, जडं मूर्ख, तपोव्रतजपान् = तपश्चरण, व्रत, और जप को,
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