Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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त्रयोदशः
कर्तुं = करने के लिये, असमर्थ = असमर्थ, शुचा = शोक से, आदितम् = दुखी, तं = उसको, उवाच = कहा, त्वम् = तुम. अविचारयन = विना कुछ विचार किये हुये, सम्मेदशैलराजस्य = शैलराज सम्मेद शिखर की. दारिद्रयनाशिनी = दारिद्र को नष्ट करने वाली, यात्रां = यात्रा को, अगे. = शरीर पर, पीताम्बराणि = पीले वस्त्रों को. धृत्वा = धारण करके, कुरु = करो, तव = तुम्हारे, आगारे = घर में, दारिज्यं - सस्ट्रिी , ननहीं, मशरपति = ठहरेगी, अत्र = इस में, संशयः = सन्देह, न = नहीं, (आस्ते = है), इति = ऐसा, श्रुत्वा = सुनकर, असौ = वह, तदैव = उसी समय. पुण्यात् = पुण्यवशात्, हि = ही. पर्वतं = पर्वत
की ओर, गतः सा गया। श्लोकार्थ - तब मुनिराज ने उस विवेकहीन मूर्ख और व्रत तप जप करने
में असमर्थ दुखों से पीड़ित समुद्रदत्त को कहा, तुम बिना कुछ विचार किये दारिद्रय दुख मिटाने वाली सम्मेदशिखर की यात्रा को अपने शरीर में पीत वस्त्र धारण करके करो। तुम्हारे घर में दरिद्रता नहीं ठहरेगी- इसमें कोई भी संशय नहीं है। मुनिराज के ऐसे वचन सुनकर वह उसी समय पुण्य के फल
से पर्वत की ओर चल दिया। आम्रवृक्षस्थले स्थित्वा चिन्तां चक्रे स्वमानसे | कस्यापि महतः पुंसः सकाशान्मे ध्ययं विधिः ।।७१।। चिन्तां यावच्चकारेमा तावद्विद्याधरस्तदा ।
सुकेताख्यो विमानाच्चायात्तत्रैव भाग्यलः ।।७२।। अन्वयार्थ - मे = मेरी, अयं = यह, हि = ही, विधिः = यात्रा करने हेतु
पीत वस्त्र पहिनने का उपाय, कस्यापि = किसी, महतः = महान, पुंसः = पुरुष के, सकाशात् = पास से, (भविष्यति = होगा) (इति = इस प्रकार), चिन्तां = चिन्ता को, आम्रवृक्षस्थले = आम्रवृक्ष के नीचे स्थल पर, स्थित्वा = बैठकर, स्वमानसे = अपने मन में, चकार = कर रहा था। यावत् = जितने समय में, इमां = इस. चिन्ता = चिन्ता को,