Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य
जन्म को,
प्रबुध्य = जानकर, त्वरया
शीघ्रता से, देवतैः =
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देवताओं के सार्धं = साथ, तत्र = वहाँ, समाययौ = आ गया ! श्लोकार्थ तभी अवधिज्ञान से प्रभु का वह शुभ जन्म जानकर जल्दी से
देवताओं सहित वहाँ आ गया।
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बालं प्रभुं समादाय
सूर्यकोटिसमप्रभम् ।
सुवर्णादिं गतः शीघ्रं जयध्वानं समुच्चरन् ।।२८ ।। पाण्डुकायां शिलायां तं संस्थाप्य जगदीश्वरम् । कलशाभिषयं चक्रे पयोनिधिजलैर्मुदा ||२६||
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अन्वयार्थ सूर्यकोटिसमप्रभं करोड़ों सूर्य के समान प्रभा वाले, बालं शिशु, प्रभुं = तीर्थड़कर को, समादाय = लेकर, जयध्वानं = जय शब्द को, समुच्चरन् = उच्चारित करते हुये वह इन्द्र, शी जल्दी ही सुवर्णादिं स्वर्ण निर्मित मेरू पर्वत पर, गतः = गया, पाण्डुकायां पाण्डुक, शिलायां = शिला पर, तं - उन, जगदीश्वरं = जगत् के ईश्वर अर्थात् शिशु तीर्थकर को संस्थाप्य स्थापित करके, पयोनिधिजलैः = क्षीरसागर के जल से, मुदा = प्रसन्नता से, कलशाभिषवं कलशों से अभिषेक, चक्रे = किया ।
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श्लोकार्थ करोड़ों सूर्य के समान है आभा जिनकी ऐसे बाल तीर्थङ्कर
को लेकर इन्द्र जय ध्वनि करता हुआ मेरू पर्वत पर गया। वहाँ पाण्डुकशिला पर प्रभु को स्थापित करके उसने क्षीरसागर के जल से उनका कलशाभिषेक किया । पुनर्गन्धाभिषेकं स कृत्वा दिव्यविभूषणैः । सम्भूष्य देवदेवं तामयोध्यां पुनरागमत् ||३०|| तत्र भूपाङ्गणे देयं सिंहासनविराजितम् । समर्च्य तत्पुरोभागे ताण्डवं विधिवत्कृतम् ||३१|| अनन्तगुणबोधत्वादनन्ताख्यं प्रभोरनु । कृत्वा मात्रे समर्प्यथ गतोऽयममरावतीम् ||३२||
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अन्वयार्थ पुनः दुबारा गन्धाभिषेकं सुगन्धित जल से अभिषेक को, कृत्वा = करके सः = वह इन्द्र दिव्यविभूषणैः
दिव्य
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