Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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एकादशः
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संभाव्य तीर्थकृदगोत्रं सम्प्राप्यन्ते तपोनिधिः ।
सन्यासेन तनुं त्यक्त्वा स्वर्ग षोडशमं ययौ ।।१०।। अन्वयार्थ – एकस्मिन् = एक, समये = समय, नन्दनामके = नन्द नामक,
सहस्रवने = सहस्रवन में, तपसा = तपश्चरण से. भास्करोपमः = सूर्य के समान, अजितस्वामी = अजितस्वामी मुनिराज, समागतः = आये, आगतं = आये हुये, तं = उन मुनिराज को. श्रुत्वा = सुगकर, परिवारसमन्वितः = परिवार सहित, राजा = राजा नलिनप्रभ ने, मुदा = हर्ष से, तद्दर्शनाकांक्षी = उनके दर्शन का आकांक्षी, तत्र = वन में, गत्वा = जाकर, तं = उन मुनिवर को, ननाम = नमस्कार किया, ततः = उसके बाद, यतिधर्मान् = मुनि के धर्मों का, पृष्ट्वा = पूछकर, श्रुत्वा = सुनकर, वैराग्यं = विरक्तिभाव को, आप्तवान् = प्राप्त हो गया, पुत्राय = पुत्र के लिये, राज्यं = राज्य. समर्प्य = देकर, सः = वह स्वयं = खुद, बहुभूपैः = अनेक राजाओं के, समं -- साथ, पावनी = पवन स्वरूप वाली, दीक्षां = दीक्षा को, संधार्य = धारण करके, एकादशागविद् = ग्यारह अंगों का ज्ञाता, भूत्वा = होकर, तपः = तप को, (च = और), षोडश = सोलह, भावनाः = भावनाओं को. संभाव्य = अच्छी तरह करके एवं भाकर, तीर्थकृत् = तीर्थङ्कर नामक, गोत्रं = उच्च पुण्य को, संप्राप्य = प्राप्त करके, अन्ते = अन्त में, तपोनिधिः = वह तपस्वी, संन्यासेन = संन्यासमरण से. तनुं = शरीर को, त्यक्त्वा = छोड़कर, षोडशमं = सोलहवें. स्वर्ग = स्वर्ग
को, ययौ = चले गये। श्लोकार्थ -- एक बार नन्द नामक सहस्र वन में मुनिराज अजित स्वामी
आये वे तपश्चरण के कारण सूर्य के समान कान्ति सम्पन्न थे। मुनिराज को आया हुआ सुनकर परिवार सहित राजा नलिनप्रभ प्रसन्नता से उनके दर्शन का आकांक्षी होकर और वन में जाकर उन्हें प्रणाम किया उसके बाद उनसे यति के धर्मों का पूछकर तथा सुनकर विरक्ति को प्राप्त हो गया तथा अपने पुत्र के लिये राज्य देकर वह खुद अनेक राजाओं के साथ पावन स्वरूप वाली दीक्षा को धारण करके और ग्यारह