Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
नवमः
तदा
देयं
सौधर्मकल्पेशः तत्रागत्य सुरैस्समम् । स्वयुक्त्यादाय स्वर्णाद्विमुपागतः ||२८||
शिलायां पाण्डुकाख्यायां तत्र संस्थाप्य तं प्रभुम् । वारिभिरस्नापद् देवं कुम्भस्यैः क्षीरवारिधेः । २६ ।।
।
अन्दयार्थ
=
=
तदा = तब अर्थात् प्रभु का जन्म होने पर, सौधर्मकल्पेशः = सौधर्म नामक प्रथम विमान का स्वामी इन्द्र ने, सुरैः देवताओं के समं = साथ, तत्र वहाँ, काकन्दी नगरी में माता के घर पर, आगत्य = आकर, स्वयुक्त्या = अपनी युक्ति से, देयं तीर्थङ्कर शिशु को आदाय = प्राप्त करके. स्वर्णाद्रिं = सुमेरूपर्वत पर पाण्डुक नाम की, शिलायां = शिला पर तं = उन, प्रभुं प्रभु को संस्थाप्य स्थापित करके, क्षौरवारिधेः == क्षीरसागर के. कुम्भस्थैः - कलश स्थित, वारिभिः = जल से देवं = तीर्थङ्कर शिशु को, अस्नापयत् = नहलाया अर्थात् उनका अभिषेक किया । श्लोकार्थ - काकन्दी नगरी में तीर्थकर शिशु का जन्म होने पर सौधर्म स्वर्ग का स्वामी इन्द्र देवताओं के साथ वहाँ आकर और युक्ति से तीर्थङ्कर शिशु को लेकर सुमेरू पर्वत पर आ गया, उस पर्वत पर विद्यमान पाण्डुक शिला पर प्रभु को स्थापित करके उसने क्षीरसागर के कुंभ में स्थित जल से भगवान् का अभिषेक किया ।
-
श्लोकार्थ
च
—
२६५
=
'=
काकन्द्यां पुनरागत्य कृत्वा तत्र महोत्सवम् । पुष्पदन्ताभिधानं स चक्रे मुदा सुरेश्वरः ||३०||
= =
अन्ययार्थ - सः = उस, सुरेश्वरः देवेन्द्र ने पुनः फिर से, काकन्द्यां काकन्दी में, आगत्य = आकर के, च = और तत्र - वहाँ, महोत्सवं = महान् उत्सव को, कृत्वा = करके, मुदा = प्रसन्नता से पुष्पदन्ताभिधानं = पुष्पदंत नामकरण, चक्रे = किया ।
-
उस देवेन्द्र ने पुनः काकन्दी में आकर और वहाँ महोत्सव करके प्रसन्नता से प्रभु का नामकरण पुष्पदंत किया ।