Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य तत्र स्थितस्स भगवान् सम्पृष्टो मुनिभिस्तदा। उच्चार्य दिव्यनिर्घोषं कुर्वन् धर्मोपदेशनम् ।।५६।। त्रोटयन् संशयतरूं तमो गाढं प्रभेदयन् । ज्ञानप्रकाशमतुलं वर्द्धयन् भव्यमानसे ||५७।। देवैर्नयनवस्तोत्रैः स्तुतस्सम्पूजितो मुदा ।
धर्मक्षेत्रेषु सर्वेषु विजहार दयानिधिः ।।५८1। अन्वयार्थ – तदा - तभी, मुनिभिः = मुनिराजों द्वारा, सम्पृष्टः = पूछे गये,
तत्र = वहीं समवसरण में, स्थितः = बैठे हुये. सः = उन, भगवान् = परमात्मा ने, दिव्यनिर्घोषं = दिव्य निरक्षर घोष का, उच्चार्य = उच्चारण करके. धर्मोपदेशनं = धर्मोपदेश करतो हुगे, संगत : संशय रूपी वृक्ष को, त्रोटयन् = तोड़ते हुये, गाढं = गहन, तमः = अन्धकार को, प्रभेदयन् = भेदते अर्थात् छिन्न-भिन्न करते हुये, भव्यमानसे = भव्यजीवों के मन में, अतुलं = उत्कृष्ट-अनुपम, ज्ञानप्रकाशम् - ज्ञान का प्रकाश, वर्द्धयन = बढ़ाते हुये, मुदा = मोद के साथ, देवैः = देवताओं द्वारा, नवनवस्तोत्रैः = नये-नये स्तुति मानों से, स्तुतः = स्तुति की जाते हुये, सम्पूजितः = पूजे जाते हुये. दयानिधिः = कृपासिन्धु भगवान् ने, सर्वेषु = सभी,
धर्मक्षेत्रेषु = धर्मक्षेत्रों में, विजहार = विचरण-विहार किया। श्लोकार्थ - उसी समय गणधरादि मुनियों द्वारा पूछे गये समवसरण में
विराजमान भगवान् ने दिव्यध्वनि अर्थात् निरक्षर दिव्य उद्घोष का उच्चारण करके धर्मोपदेश करते हुये, लोगों के संशय रूपी वृक्षों को उखाड़ते हुये, उनके घोर अज्ञानान्धकार को छिन्न-भिन्न करते हुये. भव्य जीवों के मन में ज्ञान का अनुपम प्रकाश वृद्धिंगत करते हुये तथा प्रसन्नचित्त देवों द्वारा नये-नये स्तुतिवानों से स्तुत होते हुये और पूजा किये जाते
हुये उन कृपासिन्धु भगवान् ने सभी धर्मक्षेत्रों में विहार किया। एकमासावशिष्टायुः सम्मेदाख्याचलोपरि । प्रभासनाम्नि च सत्कूट नादं संहत्य संस्थितः ।।५।।